Tuesday, May 25, 2010







हमारे सफ़र का तो कोई हमसफ़र भी नहीं
 हमारे रास्तों का कोई रहगुज़र भी नहीं /

 हमें तो फ़िक्र है जनाब कल की रोटी की
वो रात हादसे में क्या हुआ खबर भी नहीं/

  भला बाजारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
हमारे गाँव के नज़दीक तो शहर भी नहीं/

  न कभी 'धर्म' रहे और न कभी 'जात' रहे
 वजह यही कि 'दुआओं' में वो असर भी नहीं/

  अब हमें धोबी का कुत्ता कहें, गरीब कहें
 घाट तो है नहीं अपना तो कोई घर भी नहीं. --- नीलाम्बुज (ये कविता श्री हरिओम जी के ग़ज़ल संग्रह 'धूप का परचम' पढ़ते हुए लिखी थी जब मैं बी ए सेकेण्ड इयर में था.)

7 comments:

  1. एक और बेहतरीन ग़ज़ल....हर लाइन कई कहानी कहती हैं..
    भला बाजारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
    हमारे गाँव के नज़दीक तो शहर भी नहीं/

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  2. भला बाजारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
    हमारे गाँव के नज़दीक तो शहर भी नहीं/


    -गजब!

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  3. this shows your literary skill and interest.

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  4. photo ke kaaran gajal aur prabhavi lag rahi hi. bahut acchi lagi.

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  5. bahut accha laga is ghazal ko padhna ....sachmuch is safar ka koi hamsafar nhi hota ....

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