Wednesday, February 26, 2014
Thursday, February 13, 2014
रेसिपी
नहीं , नहीं , फ्रेंड्स !
आज हम बनाएँगे
हर दिल अज़ीज़
बेहद लज़ीज़
(ख़ास कर दिले-गरीब)
रोटी जली।
चाहिए कुछ चीज़ें भली।
भूख पहले
ऐसी कि जिससे दिल दहले
खाना ये बन रहा है चार का
आटा बेहतर होगा यदि हो
उधार का ।
अब जलाएँ
पेट नहीं, आग।
गरम कीजिये तवे को
न कि दिमाग।
कुछ देर भाग्य को बिसूरें
इसी बीच भगा दें उस कुत्ते को
जो है बड़ी देर से
मौके की तलाश में।
थोड़ी सी शर्म से गार्निश करें
फिर टुकुर टुकुर देखती आँखों
और कुलबुलाती आशाओं को सर्व करें
अपनी इस रेसिपी पर गर्व करें।
अप्रैल, 2002
( बनारस-बलिया पैसेंजर से उतरा तो पटरी के किनारे एक ऐसा ही दृश्य देख कर मन क्षुब्ध हो गया और घर पहुँचा तो टी वी पर रेसिपी का प्रोग्राम देखा जा रहा था। उसी की उपज है ये कविता। )
Monday, February 3, 2014
नीडो तानिया की याद में
मेरे मरहूम दोस्त
तुम्हारे बालों का क्या रंग था ?
तुम्हारी बोलती सी आँखें मुझे सोने नहीं दे रहीं
तुम्हारा चेहरा मिलता है मेरे किसी भाई से
किसी पड़ोसी से
मेरे किसी दोस्त से
मेरे देश के किसी मेहनती किसान से
किसी निरीह मजदूर से
मेरे देश के किसी भावी खिलाड़ी से
तुम्हें मार दिया गया !
देश साउथ एक्स में भी है
देश लाजपत नगर में भी है
देश लिट्रेचर फेस्टिवल और सिने शो में भी है थोड़ा थोड़ा
देश तो तवांग में भी होगा
देश तो होगा कछार में भी
देश तो त्रिपुरा के सिलाचरी बॉर्डर पर भी है
देश मस्त है, देश शर्मिंदा है, देश डरा हुआ है, देश क्षुब्ध है
कितना अलग है तुम्हारा और मेरा देश नीडो ?
मेरे ज़िंदा दोस्त !
तुम्हारे बालों का रंग कैसा भी था
तुम्हारे लहू का रंग तो लाल है न !
मेरे भी लहू का रंग लाल ही है।
देश का क्या रंग है ?
शर्मिंदगी का क्या रंग होता होगा ?
तुम्हारे सपने जब 2000 किलोमीटर से भी ज्यादा
दूरी तय करके गए थे राजधानी में
तो उनको पंख तक ठीक से न लग पाये थे
और तुम्हें बेदर्दी से मार दिया गया ।
धरने थे, रैलियाँ थीं , नारे थे
रिपोर्ट थी, एन जी ओ थे, थाने थे
नहीं थी तो इंसानियत
नहीं था तो वो जज़्बा
जो रंग को नहीं आत्मा को देख लेता है
मैं तुमको नहीं जानता दोस्त
लेकिन तुमको बहुत सारा जान गया हूँ अब
तुम्हारे बहाने थोड़ा सा जान गया हूँ खुद को
थोड़ा सा राजधानी को
थोड़ा सा रंग को
थोड़ा सा ख़ून को।
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