नहीं , नहीं , फ्रेंड्स !
आज हम बनाएँगे
हर दिल अज़ीज़
बेहद लज़ीज़
(ख़ास कर दिले-गरीब)
रोटी जली।
चाहिए कुछ चीज़ें भली।
भूख पहले
ऐसी कि जिससे दिल दहले
खाना ये बन रहा है चार का
आटा बेहतर होगा यदि हो
उधार का ।
अब जलाएँ
पेट नहीं, आग।
गरम कीजिये तवे को
न कि दिमाग।
कुछ देर भाग्य को बिसूरें
इसी बीच भगा दें उस कुत्ते को
जो है बड़ी देर से
मौके की तलाश में।
थोड़ी सी शर्म से गार्निश करें
फिर टुकुर टुकुर देखती आँखों
और कुलबुलाती आशाओं को सर्व करें
अपनी इस रेसिपी पर गर्व करें।
अप्रैल, 2002
( बनारस-बलिया पैसेंजर से उतरा तो पटरी के किनारे एक ऐसा ही दृश्य देख कर मन क्षुब्ध हो गया और घर पहुँचा तो टी वी पर रेसिपी का प्रोग्राम देखा जा रहा था। उसी की उपज है ये कविता। )
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