Thursday, August 30, 2012

स्वच्छन्द रीतिकाव्य और घनानन्द की कविता




‘‘स्वच्छन्द काव्य भाव-भावित होता है, बुद्धि-बोधित नहीं। इसलिए आंतरिकता उसका सर्वोपरि गुण है। आंतरिकता की इस प्रवृति के कारण स्वच्छन्द काव्य की सारी साधन-सम्पत्ति शासित रहती है और यहीं वह दृष्टि है जिसके द्वारा इन कर्ताओं की रचना के मूल उत्स तक पहुँचा जा सकता है।’’

कविता  स्वभाव से ही मुक्ति-धर्मा होती है। ज़ाहिर है, हृदय  के तात्कालिक उद्रेक में व्यक्त अनुभूति ही सच्ची कविता हो सकती है। किन्तु जब कविता को किसी ख़ास चैखटे में कैद कर उसकी साधना की जाती है तो वह वैसा आह्लाद उत्पन्न नहीं करती।

उत्तर-मध्यकालीन हिन्दी कविता, जिसे रीतिकालीन कविता के नाम से अभिहित किया जाता है, साहित्येतिहास में प्रसिद्ध ही इसलिए है कि कविता को कुछ सीमित भावों, विषयों और लक्षणों में बाँध दिया गया। इक्के-दुक्के कवियों को छोड़ दें, तो सिवाय उनके ‘नाम’ के, कई बार, कुछ भी अंतर नहीं पता लगता। हर कविता एक ही शैली, कवि-परिपाटी, रूढि़यों पर आधारित दिखती है। ‘रीति’ का अर्थ ही है- एक ख़ास ढंग की परिपाटी - एक ‘स्टाइल’। अतः रीतिकालीन ज्यादातर सीमित भाव-बोधात्मक हैं तो आश्चर्य नहीं। किन्तु इसी काल में कुछ कवि ऐसे हुए जिन्होंने ‘लीक छोड़कर चलने’ का कार्य किया। इसलिए इन्हें ‘स्वच्छन्द’ कवि कहा गया। इनकी कविता ही नहीं व्यक्तित्व भी स्वच्छन्द था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में -
‘‘स्वच्छन्द धारा का साध्य काव्य और साधन भी काव्य था।.................. जो साध्य पर ध्यान रखकर साधन पर ध्यान रखता है, उसका साध्य-साधन समन्वय बना रहता है।’’

लगभग दो सौ वर्षों ; 1643ई. से 1843ई. द्ध तक के रीतिकालीन साहित्य में स्वच्छन्द वृति के बहुत से कवि हुए हैं।

‘‘स्वच्छन्द प्रवाह के प्रमुख कर्ताओं में रसखान, आलम, ठाकुर, घनानन्द, बोधा और द्विजदेव का नाम लिया जा सकता है।’’
 आचार्य के इस कथन के आलोक में हम उपरोक्त कवियों की कविता को  प्रधानतः स्वच्छन्द कवि कह सकते हैं। स्वच्छन्दतावादी कवियों की कविता की मुख्य विशेषता, व्यक्तिगत अनुभूतियों की लाक्षणिक व्यंजना में हैं। यह अनुभूति कोरे शास्त्रीय ज्ञान से उपार्जित नहीं है बल्कि इन्होंने ‘मुख गाई सोई करी है’। रसखान ने धार्मिक चैहद्दियों को धता बताते हुए ‘कृष्ण’ की कविता करने का ‘कुफ्ऱ किया, जो लोक के निकट है।
घनानन्द ने सामाजिक नैतिकता की परिधि लाँघ से प्रेम किया। इसी प्रकार बोधा और आलम ने क्रमशः सुजान  और शेख़ रंगरेजिन से विवाह किया। सामंती आत्याचार का भी इन्होंने विरोध किया। जब मुहम्मदशाह रंगीले के सैनिकों ने घनानन्द  से धन-उगाही हेतु ‘जर-जर-जर’ कहा तो इन्होंने ब्रजभूमि की एक मुट्ठी लेकर उनकी ओर उछाल दी और कहा ‘रज-रज-रज’। यह ’विरोध में काव्य’ करने की मौलिक प्रतिभा थी।  कवि ठाकुर भी हिम्मतबहादुर के ही दरबार में तलवार निकालकर यह चुनौती देते हैं -

‘‘सेवक सिपाही हम उन राजपूतन के
ढान युद्ध जुरिबे में नेकु जे न मुरके।
......चोजिन के चोजी महा, मौजिन के महाजन
हम कविराज हैं, पर चाकर चतुर के।’’

स्वयं को ‘कविराज’, ‘मौजियों का महाजन’ कहना कवि के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को द्योतक है। हालाँकि स्वयं को 'चाकर' कह कर कवि ने रीति की ही लकीर पीटी है । यह इस युग की सीमाएं भी दर्शाता है , और परास भी । बाद में छायावादी युग में ऐसा ही  आत्मविश्वास निराला में प्रकट हुआ जब उन्होंने लिखा- ‘मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश’। या कुकुरमुत्ता से कहलवाते हैं- ‘घूमता हूँ सिरचढ़ा/ तू नहीं, मैं ही बड़ा।’
स्वच्छन्द कवियों में कालक्रमानुसार कवि सैयद इब्राहिम ‘रसखान’ का नाम उल्लेखनीय है। वैसे तो यह कृष्ण जी की भक्ति-कविता करते थे किंतु अभिव्यक्ति और शिल्प में यह स्वच्छन्द कवि ही हैं। आचार्य  शुक्ल  लिखते हैं-
‘‘शुद्ध ब्रजभाषा को जो चलतापन और सफाई इनकी ; रसखान की द्ध और घनानन्द की रचनाओं में है, वह अन्य़त्र दुर्लभ है।’’
भाषा का सहज सौन्दर्य, कविता में किस तरह भावाभिव्यक्ति को ध्वनित करता है, इसके लिये रसखान की कुछ पंक्तियाँ उदृधृत हैं-
‘‘ 1. नैनन सांे रसखान सबै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ।
    केतक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
2. नारद से सुक व्यास रहै पचि हारे तउ पुनि पार न पावैं।
  ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं।।
3. या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।’’

प्रथम उदाहरण में प्रकृति-वर्णन, द्वितीय उदाहरण में प्रेम की आध्यात्म पर सफलता और तीसरे उदाहरण में गोपियों के सौतिया डाह का वर्णन है। न तो इसमें कृष्ण ‘ब्रह्म’ के रूप में मंडित है और न ही गोपिया किसी पराशक्ति के रूप में। साधारण सी अहीरनें युवा कृष्ण को अपने सौन्दर्य से लुब्ध किए रहती हैं! भक्ति और अध्यात्म के मुखौटों की कोई ज़रूरत ही नहीं है यहाँ।

स्वच्छन्दतावादी कवि प्रायः  लीक छोड़कर चलने में यक़ीन रखता है। फिर भला बँधी-बँधायी लीक पर वह कैसे चले? जो काव्यशास्त्रीय प्रतिमान सदियों से व्यवह्हत होते हुए अब उबाऊ हो चले थे उनके प्रति एक विद्रोह इन कवियों के यहाँ है। बात चाहे अन्तर्वस्तु की हो या रूपाकार की, हर जगह नवीनता के स्वागत हेतु उत्सुक रहते हैं। नये विषयों का चयन, नये मुहावरों का प्रयोग, नये प्रतीक व बिंब व नये शब्द-प्रयोग। सब कुछ नया। यही प्रकृति द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता के खि़लाफ छायावादी कवि में है। वह भी वाग्देवी वीणावादिनी से नूतन का आह्वाहन करता है -
‘‘नव गति नव लय, ताल छन्द नव
नवल कंठ, नव जलद-मंन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे!

इसीलिए, जब ठाकुर ने पाया कि काव्य-परंपराओं की लकीर पीटी जा रही है तो उन्होंने लिखा -
‘‘सीखि लीन्हों मीन-मृग-खंजन-कमल नैन
सीखि लीन्हौं जस औ प्रताप को कहानौ है
...... डेल सो बनाए आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेलि करि जानो है।’’

बस आखि़री पंक्ति के अवलोकन से उसमें छिपा व्यंग्य  पता चलता है। रीतिकाल के ज्यादातर कवि आश्रयदाताओं के लिए लिख रहे थे। आजीविका चलती रहे, इसके लिए इससे आसान कुछ न था कि ‘पुरानी शराब को ही नई बोतलों’में पेश करते रहते। न हींग लगी न फिटकरी और रंग चोखा। किंतु इससे मौलिकता की अपूर्णीय क्षति होती थी। घनानंद ने भी लिखा-

‘लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’’

कवि का अनुभव ही शब्दों का सहारा पाकर कविता में ध्वनित होने लगा। यह कविता ‘स्वान्तः सुखाय’ तो है ही, अपने व्यक्तिगत अनुभवों का साधारणीकरण सामान्य-जन से करना भी है।

महाकवि सूरदास के काव्य में, विरह पीडि़त नारी अपने प्रिय के लिए बौद्धिक तर्क देती है, उपालम्भ देती हैं, लड़ती है। चाहे अपने पुत्र कृष्ण कन्हैया के लिए यशोदा हो , या अपने प्रियतम मुरलीधर के लिए राधा सहित गोपिकाएँ हों। हिन्दी में विरह-पीडि़त स्त्रियों का तो जि़क्र तो है मगर पुरुषों का ऐसा वर्णन कम ही है। किन्तु जहाँ है, वहाँ बड़ा स्वाभाविक है। नारी तो रोकर, आक्रोशित होकर या लड़कर भी अपने आवेगों को प्रकट कर लेती है किंतु पुरुष अपने ‘पुरुष-दंभ’ के कारण यह भी नहीं कर सकता। वह, आलम के अनुसार, यही कर सकता है-

‘‘आलम जौन से कुंजन में करि केलि वहाँ अब सीस धुन्यों करैं।
नैनन में जे सदा रहतेे तिनकी अब कान कहानी सुन्यौ करैं।।’’

प्रेम की राह कठिन होती है, यह सूर और मीरा के काव्य से हमें पहले ही ज्ञात है। किन्तु रीतिकाल में जब अन्य कवि ‘उधार के प्रेम’ और ‘किराए के आँसू से प्रेम को ‘केलि-क्रीड़ा’ मात्र तक सीमित कर रहे थे तब कवि बोधा यह लिख रहे थे-

‘‘कवि बोधा अनी धनी नेजहु तें चढि़ तापै न चित्त डरावनौ है,
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवार की धार पै धावनौ है।’’

बाद में महाकवि ग़ालिब ने भी लिखा-
‘‘ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजै
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

इन कवियों के अलावा वृन्द, वैताल, गिरिधर कविराज, घाघ आदि ने भी ‘सूक्तिपरक रीतिमुक्त’ काव्य विरचित किया। किंतु इन सबमें घनानंद ‘नक्षत्रों के बीच चंद्रमा’ रहे हैं। घनानंद की कविता की प्रमुख विशेषताएँ इस बात को और स्पष्ट करेंगी।

घनानन्द का काव्य उनके जीवनानुभवों की सहज अभिव्यक्ति है जिसमें स्वच्छन्तता का भाव अन्तर्निहित है। प्रो. लल्लन राय लिखते हैं - ‘‘अपने युग के सामाजिक विधि-निषेधों के प्रति विद्रोह के साथ ही इन्होंने काव्यगत रीतियों का भी किंचित विरोध अवश्य किया।’’

अपने प्रियतम के ‘मान रखने के कारण ही इन्हें राजदरबार से निकाल दिया गया था। किंतु प्रेम से कहीं समझौता इन्होंने नहीं किया। इनका सुजान के प्रति एक निष्ठ प्रेम आद्यांत बना रहा। यह विद्रोह निजी जीवन में तो शायद उतनी मुखरता से प्रकट नहीं हो सका, किंतु काव्य-रीतियों के पुराने पड़ चुके प्रतिमानों के प्रति विरोध का आग्रह प्रबलता से है।

काव्य-परंपरा में यह मान्यता चली आ रही है कि प्रेम में त्याग और सर्वस्व-समर्पण ही आदर्श है। प्रियतम के लिए मिट जाना ही अंतिम और सर्वोत्तम परिणति है। मिलन में यह आदर्श पतंगे का और विरह में मछली का, वरेण्य है। किंतु इस साँचे में कवि घनानन्द की काव्यानुभूति ‘फिट’ नहीं होती। इस मीन-पतंग दसा’ पर व्यंग्य करते हुए कवि अपनी अनुुभूति के लिए उचित प्रतिमान गढ़ने को आकुल है -

‘‘मरिबै बिसराम गनै वह तो, यह बापुरौ मीत तज्यौ तररौ।
वह रुप-छटा न सहारि सकै, यह तेज तवै चितवै बरसै।
घनआनन्द कौन अनोखी दसा, मति आवरी बावरी ह्वै थरसै।
बिछुरें मिले मीन पतंग दसा कहा मो जिय की गति कौ परसै।।

मछली के प्रेम और पतंगे का स्नेह भला कैसे आदर्श हो सकता है। पतंगा तो प्रियतम से मिलने पर ,मिलते ही प्राण त्याग देता है। वह न तो प्रेम की गहराइयों को समझ पाता है और न संवेदनाओं को। मछली, पानी से अलग होते ही प्राण त्याग देती है। प्रियतम को कलंक लगता है। वह विरहाग्नि को ज्यादा झेल ही नहीं पाती। रहीम भी पहले लिख गए थे ऐसा-

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह
रहिमन मछरी नीर को तउ न छाड़त छोह।

 जबकि विरह तो प्रेम की जाग्रत गति है। तभी घनानन्द को कहना पड़ा -
‘‘या मन की जु दसा घनआनन्द जीव की जीवनिजान ही जानै।’’ जि़न्दा रह कर उस पीड़ा को महसूस करना घनानन्द को काम्य है।

रीतिमुक्त कविता में कवियों ने अपने वास्तविक प्रेमानुभवों पर ही लिखा है, इसीलिए उनकी कविताएँ हमें स्वाभाविक लगती हैं। लेकिन कुछ रीतिमुक्त जैसे बोधा, प्रेम के द्विपक्षीय रूप के पक्षधर है, वे बेवफा से प्यार करना नहीं चाहते -

‘‘विष खाई मरै कि गिरै गिरिते दगादार ते यारी कभी न करै।’’

परंतु घनानंद तो ‘दग़ादार से यारी’ करने वाले एकमात्र रीतिमुक्त कवि हैं। प्रिय की लाख उपेक्षा और निष्ठुरता के बावजूद वह विचलित नहीं होते, बल्कि  कविता में व्यंग्य का दंश गहरा और यथार्थवादी हो जाता है -
‘‘मोसों तुम्हैं सुनौ जान कृपानिधि नेह निबाहिबो यौं छवि पावै।

ज्यों अपनी रुचि राचि कुबेर, सुरंकहिं लै निज अंक बसावै।’’

कोई धनिक जिस तरह ग़रीबों को स्नेह  करता है, वैसे ही स्नेह तुम्हारा मेरे प्रति है - ऐसा कहकर घनानंद परोक्षतः तत्कालीन वर्ग-विभाजन का स्पष्ट रेखांकन भी कर रहे हैं। घनानंद का प्रेम के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। मतिराव, देव, चिन्तामणि आदि की तरह यह केवल ऐंद्रिय नहीं है, हास-विलास, केलि-क्रीड़ा ही नहीं है, बल्कि एक उदात्तता का प्रतीक है। ब्रजनाथ इनके लिए लिखकर यह स्पष्ट करते हैं कि इनके प्रेम का स्वरूप कैसा है -

‘‘चाह के रंग में भीज्यौ हियौ, बिछुरे मिलें प्रीतम सांति न माने।’’

घनानन्द के यहाँ प्रेम ऐसा है कि जितनी दर्शन की अभिलाषा है, उतना ही बिछुड़ने का भय। प्रिय के दर्शन की तीव्र आसक्ति उसके रूप-सौन्दर्य से जुड़ी है। यह सौन्दर्य बोध कोरा ‘कामशास्त्रीय’ नहीं है, वास्तविक अनुभव पर आधारित है। कवि ने प्रेमिका के सौन्दर्य की अनुभव किया है। वह मांसल और ऐन्द्रिय है, कोेई पारलौकिक माया नहीं। इस रूप की प्रशंसा चिर-नवीनता के गुण के आधार पर घनानन्द करते हैं-

‘‘रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागै ज्यौं, ज्यौं निहारियै।’’

क्वि ने कुछ सौन्दर्य चित्र दिए हैं-
‘‘लट लोल कपोल कलोल करै कलकंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग-अंग तरंग उठै द्युति की परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै।।

इसी सौन्दर्य के वशीभूत होने के कारण संयोग के क्षणों में इसे खोने का डर बना रहता है -

‘‘अनोखी हिलग दैया, बिछुरै तो मिलै चाहै,
मिलहूँ  में मारै जारै खरक वियोग की।’’

यद्यपि बिहारी जैसा संयोग का सूक्ष्म वर्णन इन्होंने नहीं किया है, किन्तु जिस लक्षणात्मक तरीके से भाषा का प्रयोग किया वह प्रशंसनीय है। संयोग के चित्र होते हुए भी घनानंद की मूल संवेदना विरह-भाव है। चूँकि इसी का ज़्यादा  लम्बा और मर्मान्तक प्रभाव उन्होंने ग्रहण किया है। स्वाभाविकता से, यह विरह-वर्णन के अद्भुत कवि है। तभी तो इनके टिप्पणीकार ने लिखा-

‘‘समुझै कविता घनआनन्द की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।’’

आचार्य शुक्ल भी लिखते हैं- ‘‘घनानंद ने न तो बिहारी की तरह विरहताप को बाहरी माप से मापा है, न बाहरी उछलकूल दिखाई है। जो कुछ हलचल, वह भीतर की है- बाहर से यह वियोग प्रशांत और गंभीर है।...उनकी मौनमधि पुकार है।’’

कवि अन्तर्मुखी है। वियोग के समय यह अंतर्मुखी प्रवृति बढ़ जाती है। भीतर का उद्वेग कविता में प्रकट होता है, बल्कि ‘घनीभूत पीड़ा’ ही कविता-रूप में निःसृत होने लगती है। यह विरह इसलिए भी ज़्यादा है क्योंकि प्रेम की विषमता है। प्रियतम की तरफ से कोई आशावादी संकेत भी नहीं है। वस्तुतः ‘प्रीति रीति विषम सु रोम रोम रम्यो है’-यही कहा जा सकता है। प्रेमी तो अपनी अन्तर्मुखी प्रवृति के कारण ‘मौन की पुकार’ लगा रहा है और प्रियतम हृदय की ध्वनि तो दूर प्रत्यक्ष ध्वनि भी सुन नहीं सकती। क्योंकि -

‘‘तेरे बहरावनि रूई है कान बीचि, हाय
बिरही विचारन की मौन में पुकार है।’’
...................................................................
‘‘इत काहू सो मेल  रह्यौ न कछू, उत खेल सी ह्वै सब बात टरी।’’

विरह में जो व्याकुलता होती है, उसका स्वाभाविक चित्रण घनानंद के यहाँ है। बिहारी की नायिका की भाँति नहीं जो ठंडी आहें भरने पर चार-चार कदम आगे-पीछे हो जाती है। एक चित्र देखें -

‘‘अंतर हौं किधौं अंत रहौ दृग फारि फिरौ कि अभागनि भीरौं।
........... पाऊँ कहाँ हरि हाय! तुम्हें, धरनी मैं धँसौं कि अकासहिं चीरौं।।’’

एक अन्य चित्र में इसी व्याकुलता  में प्रकृति से सम्वाद का चित्र है। दुःख में कवि पवन से अपने प्रियतम की चरण रज-मात्र को लाने का आग्रह करता है -

‘‘ऐ रे बीर पौन तेरो सबै ओर गौन
बीरि तोसो और कौन मन ढरकौहिं बानि दै।
...बिरह बिथा कि मूरि आँखिन में राखौं पूरि
धूरि तिन्ह पायन की हा!हा! नेकु आनि दै।’’

विरह-वर्णन में अक्सर वर्णित किया जाता है कि ‘निसि दिन बरसत नैन हमारे।’ किन्तु कविवर घनानन्द  को तो प्रेमी की याद से फुर्सत ही नहीं कि वह दिन और रात कब हुई यह पता लगा सकें। यदि उनके दुःख का वर्णन किया जाए तो रात-दिन का-सा अंतर होगा अपेक्षाकृत आमजन के।
होली की छटा भी प्रियतम बिना अधूरी है क्योंकि जब प्रियतम है ही नहीं तो किसे प्रेम के रंग में रंगा जाए-

‘‘मेरौ मन आली वा विसासी वनमाली बिना
बवरे लौ दौर दौरि परि सब ओर को।’’

प्रेम की विषमता के कारण कवि प्रियतम पर व्यंग्य भी करता है, उलाहने देता है किन्तु प्रेम की उदात्तता का जि़क्र भी करता है-
‘‘मीत सुजान अनीति की पाटि, इ्तै पै न जानिये कौन पढ़ाई
................................................................................................................
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं
............... तुम कौन धौं पाटि पढ़ै हो लला, मन लेहु पै देहु छंटाक नहीं।’’

अनुभूति पक्ष में श्रंृगार के अलावा इनकी कविता में भक्ति, नीति आदि भी मिलते हैं किंतु प्रमुखता श्रृंगार की है। शिल्प पक्ष की दृष्टि से भी घनानंद की कविता समृद्ध है। कविता को यह ‘उर भौन में मौन के घूँघट दै दुरि बैठी बिराजति बात बनी’- दुल्हन की मान्यता देते हैं - नवोढ़ा, जो सिमटी-सी है। उसका अर्थ धीरे-धीरे खुलता है जैसे नई दुल्हन धीरे-धीरे संकोच त्याग कर अपने सौन्दर्य का रसपान कराती है। आचार्य शुक्ल इनकी भाषाा के बारे में लिखते हैं -
 ‘‘ इनकी सी विशुद्ध सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है।’’

इस प्रकार हम देखते हैं कि रीति मुक्त स्वच्छन्तावादी कवियों ने अपने काल की कृ़त्रम सीमाओं का अतिक्रमण कर स्वाभाविक काव्यधारा का निर्झर बहाया है। इनमें भी घनानंद की कविता को अगर अपने युग का सर्वोत्तम उपलब्ध निष्कर्ष कहा जाए तो कुछ गलत न होगा।

( सभी संदर्भ नीचे दिये गए हैं। क्रुतिदेव 10 से इसको यूनिकोड में कन्वर्ट किया है । इसमें फुटनोट थे।  यूनिकोड में  उद्धरण के ऊपर लिखे 1, 2, 3 आदि अंक नहीं आ सके हैं । फिर भी विद्वतजन अनुमान लगा कर पढ़ लेंगे , मुझे भरोसा है । आपके सुझाव और संवाद का इंतज़ार रहेगा । धन्यवाद ।  )

संदर्भ सूची -



1-घनानंद कवित्त, सं. -विश्वनाथ प्र. मिश्र, संजयबुक सेंटर, वाराणसी, 1996, पृ. 9
  2-हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं. डाॅ नगेन्द्र, वेस्टर्न पब्लिशिंग हाउस, 1980, पृ. 291
  3-घनानंद कवित्त, पृ. 11
  4-हिन्दी साहित्य का इतिहास - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अशोक प्रकाशन, नई दिल्ली- 2004
  पृ. 29
  5-वही, पृ. 229
  6-वही, पृ. 113
  7-वही, पृ. 114
  8-राग-विराग, सं- डाॅ रामविलास शर्मा, लोकभारती, 2002, पृ. 75
  9-घनानंद कवित्त, पृ. 9,भूमिका
  10-वही, पृ. 12
  11-हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ. 198
  12-वही, पृ. 222
 13- घनानंद, प्रो. लल्लन राय, साहित्य अकादमी, 2004, पृ. 12
 14- घनानंद कवित्त, पृ. 20, भूमिका
  15-वही, पृ. 21
  16-घनानंद, लल्लन राय, पृ. 36
  17-वही, पृ. 36
  18-घनानंद कवित्त, पृ. 47, भूमिका
  19-वही, पृ. 67
  20-वही, पृ. 9
  21-घनानंद, लल्लन राय, पृ. 54
 22- घनानंद कवित्त, पृ. 4, भूमिका
  23-हिन्दी साहित्य का इतिहास, शुक्ल जी, पृ.203
  24-घनानंद, लल्लन राय, पृ. 63
  25-वही, पृ. 79
  26-वही, पृ. 82
  27-वही, पृ. 46
  28-हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ. 202



सहायक ग्रंथ
1. घनानंद कवित्त, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ; संपादक द्ध, संजय बुक सेंटर, वाराणसी
2. घनानंद, प्रो. लल्लन राय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
3. आनंदघन, डाॅ. रामदेव शुक्ल, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
4. हिन्दी साहित्य का इतिहास- सं.- डाॅ. नगेन्द्र, वेस्टर्न पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
5. हिन्दी साहित्य का इतिहास - आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
6. रीति काव्य धारा- डाॅ. कृष्णदेव झारी, स्मृति प्रकाशन, दिल्ली
7. राग-विराग, निराला, सं-डाॅ. रामविलास शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
8. दीवान-ए-ग़ालिब, मिर्जा ग़ालिब, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
9. हिन्दी साहित्य और संवदेना का विकास, डाॅ. रामस्वरूप् चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहाबाद

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