Wednesday, August 29, 2012

हिन्दी-आलोचना और विचारधारा



आलोचना करना एक वैचारिक कर्म है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, जब यह कहा जाये कि अमुक आलोचना, विचारधारा से प्रभावित या प्रेरित है। आलोचना का विवेक होना और विवेकवान आलोचना करना, ये दोनों अलग-अलग बातें हैं और ‘विचारधारा’ यहीं से आलोचना पर अपना प्रभाव डालती है।
‘आलोचना’, जिस रूढ़ अर्थ में प्रचलित है, वह रचना के बाद की प्रक्रिया है। यद्यपि रचना स्वयं जीवन की आलोचना ही है। मैथ्यू आर्नाल्ड ने तो काव्य को  मूलतः "जीवन की आलोचना" ही  माना था।  हर कवि या लेखक अपनी दृष्टि से समाज को, विश्व को परखता है, रचता है और पेश करता है - ‘रचना’ के रूप में। यहाँ कुछ ‘कवि-कर्म’,( कुकर्म ?)  जो हर काल में होते आए हैं, उनसे आशय नहीं है।  रचनाकार जब विषय का चयन करता है, ‘विचारधारा’ वहीं से रचना-आलोचना से जुड़ जाती है। आलोचना से इस तरह कि एक तो स्वयं उसमें ( रचना में ) अभिव्यक्त विषय में क्षण या काल-विशेष की  संवेदनात्मक आलोचना। दूसरे , जब कोई आलोचक उस रचना पर विचार करेगा तो रचना की विचारधारा से तो वह टकराएगा ही, साथ में स्वयं आलोचक की विचारधारा भी रचना की पड़ताल करेगी।

कला के क्षेत्र में विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ता है। विभिन्न दार्शनिकों ने इसका गहन विश्लेषण और  विवेचन किया है। साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला और कभी-कभी तो संगीत कला में भी विचारधारा का प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ हमारा ध्यान मुख्यतः साहित्यिक आलोचना और विचारधारा के सम्बन्धों पर होगा।
साहित्यिक आलोचना का पुराना  इतिहास है, जिसे खंगालना वांछनीय नहीं है। प्राचीन यूनान में अरस्तु, लोंजाइनस, होरेस आदि कुछ नाम-मात्र काफ़ी है तत्कालीन विकसित आलोचना दृष्टि के लिये। आधुनिक आलोचना-शास्त्र के लिये भी हमें यूरोप का कृतज्ञ होना चाहिये। डाॅ.जाॅनसन, पोप, वाल्टेयर, वड्र्सवर्थ, काॅलरिज, इलियट, आदि अनेक नाम जिनकी फेहरिस्त लम्बी है। इन्हीं के लगभग साथ-साथ माक्सवादी साहित्यिक आलोचना जो माक्र्स-एंगेल्स, लेनिन, ग्रामशी, लुकाच, त्रात्स्की आदि से होकर रेमंड विलियम्स, रैल्फ फाॅक्स और टेंरी इगलटन तक आती है। ये सफर लगातार जारी है ।

यह तो हुई यूरोपीय आलोचना-परिवेश की बात। भारतीय और उसमें भी हिन्दी-आलोचना पर विचारधारा के असर की चर्चा इस यूरोपीय परिवेश की पृष्ठभूमि में किया जाना असंगत न होगा, हाँलाकि यहाँ परिवेश आलोचकीय विवेक और विचारधारा वहाँ से भिन्न थे लेकिन यह ज़रूर ध्यान रखना चाहिये कि जब यहाँ  आलोचना-कर्म की शुरूआत हुई तब यह हिन्दी क्षेत्र उसी यूरोप के एक साम्राज्यवादी राज्य का उपनिवेश था। साम्राज्यवाद का शोषण और औपनिवेशिक विडम्बनाएँ दोनों, आलोचनक की विचारधारा पर असर डालेंगी।
हिन्दी आलोचना का जन्म या प्रारंभ भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध से माना जाता है जो 1883ई. में प्रकाशित हुआ था। भारतेंदु ने इसमें एक बात लिखी है -
‘‘प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा सम्पादन करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है।’’ ( भारतेन्दु समग्र , नागरी प्रचारिणी पत्रिका , पृष्ठ - 559)

इस वाक्य में दो विचारधाराओं से वे प्रेरित हैं- पहली तो नवजागरण की मुक्तिकामी-चेतना की विचारधारा जो उस दौरान चल रहे लगभग  तमाम सांस्कृतिक  और  सामाजिक आंदोलनों से आकार ले रही थी। दूसरी नाटक की ,  प्रकारान्तर से पूरे साहित्य की जनोपयोगिता की। भारतेंदु परम्पराआंे की लकीर पीटने की अपेक्षा नवीनता का स्वागत पसंद करते हैं और प्रयास ‘व्यर्थ न हो’ इसकी चिंता भी उन्हें इसीलिये है कि वह साहित्य को केवल ‘स्वान्तः सुखाय’ नहीं मानते।

भारतेंदु के नाटक ही इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं। यह प्रवृत्ति  प्रसाद, महावीर प्रसाद  द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ,आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी,शिवदान सिंह चौहान ,  रामविलास शर्मा , मुक्तिबोध , अज्ञेय, आदि से होती हुई लगातार विकसित हुई है और नाम गिनाना इस पत्र का विषय भी नहीं।

आलोचना, आलोचक की विचारधारा से ही निःसृत होती है। लाल रंग देख कर किसी को क्रांंित के निशान ख़ून की याद आ सकती है तो किसी को प्रेमिका के रक्ताभ होठों की, अपने-अपने विचार। इसी क्रम में विचार, विचारधारा  तब बनते है जब वे प्रभावशाली जन-समूह की वर्ग-चेतना का हिस्सा बन जाते हैं या बना दिये जाते हैं। साहित्यिक आलोचना में विषय चयन से मूल्य-निर्णय तक विचारधारा का हस्तक्षेप होता है। यह चयन भी कहीं न कहीं आपकी वर्ग-दृष्टि से परिचालित होता है।

हिन्दी आलोचना का इतिहास कुछ सौ-सवा-सौ ही वर्षाें का ही है, लेकिन विवाद, जो वाद से निकले, सम्वाद कम ही बन पाये हैं। कारण कि उसका आधार रचनाशीलता से जुड़ाव के बदले विचारधारात्मक छिद्रान्वेषण और प्रतिउत्तरों की प्रबलता रहा है।

हिन्दी में स्वातंत्र्य पूर्व की आलोचना का विचारधारात्मक विश्लेषण कठिन नहीं है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अनुशासन के हामी थे। बेकन से प्रभावित थे, गोल्डस्मिथ पसंद था और कालिदास, माघ, भवभूति का वे पारायण कर चुके थे। उन्होंने नये साहित्य को मानवोन्मुख बनाने और इसके  लिये सरलता और ‘निजभाषा’ पर ज़ोर दिया। यह साधारण बात नहीं थी। साम्राज्यवादी ताकत के खि़लाफ एक बिगुल के रूप में अपनी भाषा का उत्थान होने लगा। कविता, आलोचना, कहानी आदि क्षेत्रों में द्विवेदी जी की विचारधारा हावी थी।
आचार्य शुक्ल द्विवेदी  युग से ही लिख रहे थे। वे आलोचना में कुछ मानदण्ड बनाकर उतरे - लोकमंगल, साधनावस्था, रस-सिद्धांत का पुनरोद्वार, साहित्येतिहास का वस्तुगत और वैज्ञानिक लेखन आदि। साहित्य को वे ‘जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिम्ब’ मानते थे और यही आधार लेकर उनका आलोचना-कर्म बढ़ा। शुक्ल जी की विचारधारा, विचारों की धाराएँ भी मिल जाने से न तो नाक-भौं सिकोड़ने की ज़रूरत है न उसकी उपेक्षा कर आगे बढ़ने की। शुक्ल जी अपने पूर्वाग्रहों के कारण, विद्यापति को ‘फुटकर श्रेणी’ में रखते हैं,  कबीर का सम्भावनापूर्ण मूल्यांकन भी नहीं कर सके लेकिन उनके पूरे आलोचकीय कर्म में जो विचारधारा प्रमुख थी वह थी लोकमंगल जिस पर उन्होंने सूर, जायसी, तुलसी, घनानंद, भारतेंदु, प्रेमचंद आदि को परखा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हाशिये की परम्परा के सर्जक और शोधार्थी थे। परंपरा की प्रगतिशीलता ढूंढना उनका प्रमुख दाय है। अब उनके लोकमंगल का 'लोक' कौन है , कौन नहीं है , इस पर हम ज़रूर बहसतलब हो सकते हैं।

आलोचना में विचारधारा का साथ तो सदैव से रहा है लेकिन स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी आलोचना में यह खुलकर सामने आया। दरअसल, आलोचना से पहले रचनाशीलता में ही विचारधारात्मक खाई उत्पन्न हो गई। 1936 के प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद से ही यह सुगबुगाहट शुरू थी और प्रगतिवाद बनाम प्रयोगवाद के नाम स ेचल रही थी। बाद में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के नारों के बीच से ये मतभेद और भी बड़े बनकर निकले। अपने-अपने दर्शनों और विचारों का बौद्धिक शास्त्रार्थ दूसरों से किया जाने लगा। आलोचना को यह परम्परा ?  आज भी चल रही है। 1936 के बाद हिन्दी में माक्र्सवादी आलोचना का आरंभ हुआ। प्रकाशचंद गुप्त से शुरू होकर शिवदान सिंह चैहान, डाॅ. रामविलास शर्मा ,डाॅ. नामवर सिंह आदि तक इसका विकास हुआ और हो रहा है। दूसरी ओर की खेमेेबंदी विचारधारात्मक ही थी, जो रूपवादियों के दल की थी, जिनमें अज्ञेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, धर्मवीर भारती आदि थे। कुछ आलोचक स्वतंत्र-चिंतक या कहें कि शास्त्रीय थे जैसे- डाॅ. नगेंद्र आदि।

मार्क्सवादी  आलोचना रचना की आधार और अधिरचना में जाती है। उसके काल-बोध को पकड़ती है। इतिहास में उसका स्थान ही तय नहीं करती वरन् रचना से इतिहास को भी तय करती है। जनोन्मुख साहित्य की पक्षधरता इसमें होती है क्योंकि यह ‘कला जीवन के लिए’ सूत्र पर यक़ीन रखती है। माक्र्सवादी आलोचना रचना में जुड़े उन स्थलों और प्रसंगों की विस्तृत व्याख्या का प्रयत्न करती है जो जन-क्रांति से जुड़े हैं या सामाजिक क्रांति की किसी बात से। स्वभावतः  मार्क्सवादी  विचारधारा शासक-वर्ग  की  विरोधी होती है अतः  मार्क्सवादी आलोचना भी रचना के ज़रिये सत्ता की दमनकारी नीतियों का विरोध करती है।

आलोचना- संरचनावादी, विखण्डनवादी, रूपवादी या उत्तर आधुनिकतावादी - अंतर केवल या कमोवेश नाम का ही है। संदर्भ लगभग  एक ही है कि रचना का कोई संदर्भ-प्रसंग नहीं। पाठ ही सब कुछ है। शायद इतने विश्वास से तो शंकराचार्य ने ब्रह्म के बारे में भी न कहा हो! तुर्रा  ये कि- "इतिहास का अंत हो गया है।" ( फ्रांसिस फुकुयामा, जापानी मूल के अमेरिकी विश्लेषक ) गोया ‘इतिहास’ हिरोशिमा के किसी मुहल्ले में उस वक्त रहता था जब उस पर परमाणु बम गिरा दिया गया। असल में ये सब ढकोसले नये पूँजीवाद के सलोने जुमले हैं। साहित्य की संघर्षशील चेतना को ढाँप् कर उसे रीतिवादी चैखटे में कैद कर देने की साजि़श है - लेकिन है, ये भी एक विचारधारा ही।

प्रसंगवश ‘सरकारी’ नामक विचारधारा का उल्लेख भी करना होगा। यह नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों  द्वारा ‘तैयार’ की जाती है और एक साथ उदार एवं क्रांतिकारी, जनोन्मुख और अभिजनोन्मुख होती है। पाठ्यक्रम में लगी आलोचना की किताबें और आलोचनात्मक निबंध इसके उदाहरण है।

इस तरह हम देखते हैं कि आलोचना और विचारधारा अपने-अपने पक्ष को रखती हुई साथ-साथ चलती है। विचारधारा, आलोचना को प्रभावित करती है और कभी कभी पूरी तरह निगल जाती है। तब आलोचना का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है, क्योंकि आलोचक के पास विचारधारा का विवेक होना अच्छा है, लेकिन  उससे ज़्यादा जरूरी है कि उसके पास रचना के मर्म का बोध हो, रचनाकार व कृति के इतिहास का बोध हो ,तभी आलोचना सफल होगी।

 नोट- ( मूलतः यह पर्चा जे एन यू के एम ए के अंतिम सेमेस्टर में प्रो॰ मैनेजर पाण्डेय के लिए लिखा गया अवधि पत्र था। यहाँ उसका थोड़ा-सा परिवर्धित रूप प्रस्तुत है। )

नीलाम्बुज सिंह
प्रवक्ता (हिन्दी),
केन्द्रीय विद्यालय, बगाफा
सांतिर बजार, दक्षिण त्रिपुरा-799144
(त्रिपुरा)

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