Tuesday, July 17, 2012
रासायनिक परिवर्तन
जब पहली बार
बैठा था वो
'पिज्जा हट' में
तो उसे याद आई थी
चूल्हे की अधजली रोटी,
याद आई थी उसे
अपनी टपकती हुई झोपडी
जब लिफ्ट से उसने
पच्चीसवें माले पर कदम रखा था,
बूढ़े बॉस के चेहरे की
लालिमा की तुलना
उसने जवान भाई के
मुरझाये हुए चेहरे से की थी,
शहर की चमचमाती सड़कों में
उसे रह रह कर
गाँव की गड्ढे वाली कच्ची सड़क
याद आई थी,
उसे जब पहली बार मिला
कॉर्पोरेट कंपनी से
'पेमेंट'
का चेक
तब उसे कुछ याद नहीं रहा...
अब वो खुश है
!
प्रेयसी के लिए
(ये कविता डॉ॰ लक्ष्मी शर्मा द्वारा संपादित 'लड़की होकर सवाल करती है' किताब में प्रकाशित हुई है । बोधि प्रकाशन से । वहाँ इसका शीर्षक 'स्त्री तुम चिड़िया हो' दिया गया है। यहाँ प्रकाशित कविता का चित्र और मूल शीर्षक के साथ मूल कविता प्रस्तुत है। )
तुम चिड़िया हो या नदी
फूल हो या वसंत
तुम कागज़ हो या कलम
तुम संज्ञा हो या विशेषण
नहीं जानता
जानना चाहता भी नहीं
बस चाहता हूँ
कि तुम उड़ती रहो
मेरे मानस-गगन में
तुम बहती रहो सदानीरा जैसी
मेरे हृदय पटल पर
तुम करती रहो सुरभित
मेरी यादें ।
तुम्हें न लिख सकता हूँ
और ना ही पढ़ सकता हूँ
पर कर सकता हूँ महसूस
इतना - कि मानो तुम
स्वयं को पहचानो
मेरे स्पर्श से ।
मैं खोजना चाहता हूँ
तुम्हारे अंदर -
स्वयं को ।
सच
बस इतना ही चाहता हूँ ,
बस यही!
Monday, July 16, 2012
सर्वनाम
पुकारा तो हमेशा गया उसेलेकिन वैसे ही जैसे
बेगार को बुलाया गया हो
दुखी के बजाय उसका बेटा
उपस्थित था वो हर रचना में
गुमनाम सा
जैसे
इंडिया गेट , विक्टोरिया पैलेस , गेटवे ऑफ़ इंडिया
इत्यादि के
शिलापट्ट पर मजदूर
जब भी सर्वनाम ने कुछ अपनी
सुनानी चाही
पाणिनि से पार्लियामेंट तक
सबकी भृकुटी तन गयी
इसलिए वैयाकरणों ने निष्कर्ष निकला है
सर्वनाम पर
बगावत के जुर्म में रा. सु. का. लगने वाला है.
सच
कविता लिखना आसान है
समझाना उस से ज़रा ज्यादा मुश्किल
और जीना?
बहुत कठिन है साथी
कविता को जीना बहुत कठिन है!
Saturday, July 7, 2012
लापता
लापता
-----------
कुछ पता नहीं चलता
शम्भूक के कटे हुए सिर का
छींटे तो पड़े होंगे रक्त के !
कहाँ हैं वो ?
क्या धो दिया गया उन्हें सोमरस से ?
या यज्ञ की वेदी के नीचे दबा दिया गया ?
क्या हुआ शबरी का
जूठन खिलाने के बाद ?
क्या राम ने दे दी उसे
वृद्धावस्था पेंशन ?
कहाँ दबी होगी उसकी फ़ाइल ?
और तो और
ना जाने कहाँ है
एकलव्य का कटा हुआ अंगूठा भी ,
नहीं दीखता 'गुरु द्रोणाचार्य' वाले
मेट्रो स्टेशन पर भी
या द्रोणाचार्य की किसी तस्वीर में ?
कहाँ गए ऐसे लोग ?
कहाँ गयी उनकी स्मृतियाँ ?
ठहरो !
धरती हिल रही है
और
पाताल तोड़ कर कोई
निकल रहा है बाहर !!!
Subscribe to:
Posts (Atom)
सांवली लड़कियां
क्या तुमने देखा है उषाकाल के आकाश को? क्या खेतो में पानी पटाने पर मिट्टी का रंग देखा है? शतरंज की मुहरें भी बराबरी का हक़ पा जाती हैं जम्बू...
-
‘‘स्वच्छन्द काव्य भाव-भावित होता है, बुद्धि-बोधित नहीं। इसलिए आंतरिकता उसका सर्वोपरि गुण है। आंतरिकता की इस प्रवृति के कारण स्वच्छन्द का...
-
देखा विवाह आमूल नवल, तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल। देखती मुझे तू हँसी मन्द, होंठो में बिजली फँसी स्पन्द उर में भर झूली छवि सुन्दर, प्रिय क...