Sunday, September 30, 2012

कवि को 'देस निकाला'?

यहाँ पर  आप मेरी एक पुरानी पोस्ट पढ़ सकते हैं । मोहल्ला लाइव पर ये मेरी पहली पोस्ट थी। काफी आक्रोश में लिखी थी। सिर्फ याद करने के लिए लगा रहा हूँ । 

ग़ज़ल और बाल साहित्य

ये दो गजलें और नीचे का एक लेख प्रभात खबर में आए थे। आज लगा ही तो दिया यहाँ पर । 


प्रगतिशील कविता और नागार्जुन







नज़ीर की काव्यभाषा







इसपातिका में प्रकाशित एक शोध लेख । सुधीजनों के लिए । मेरे एम फिल शोध कार्य की एक झलक। 

Friday, September 14, 2012

सामासिक संस्कृति


सभ्यता दाल-भात है !
स्वाद है संस्कृति?
केवल दाल-भात पेट तो भर देता है
लेकिन कभी-कभी एक अदद हरी मिर्च
(नमक के साथ)
स्वाद बढ़ा देती है
मिर्च कड़वी भी हो सकती है !
( फिर मीठी मिर्ची कभी सुनी भी तो नहीं !)
मिर्च कई तरह से खा सकते हैं –
हो सकता है बने चटनी
लोढ़े-सिलबट्टे पर ।
बन जाएगा आचार , यदि
भर दें उसमें थोड़ा सा मसाला और धन ।
 
यह बात भूख से निकली थी
और भूख संस्कृति नहीं होती
संस्कृति है स्वाद –
स्वाद : मेहनत का , पसीने का , खून का ।
इन्ही को समेट लो कवि !
सामासिक संस्कृति है यही , यही ।
 

Thursday, September 13, 2012

हिन्दी नाटक , सिनेमा और समाज



भारतीयता ने कई बार अपने अर्थ को बदला है। आजादी से पहले भारतीयता का अर्थ देशभक्ति से लिया जाता था।  लेकिन विभिन्न कारणों से आजादी के बाद भारतीयता की अभिव्यक्ति दूसरों तरीको से होने लगी। अब भारतीयता फिल्मों में, राष्ट्रीय त्योहारों और खेलों में नजर आने लगी। आजादी के पहले के नाटकों का विषय प्राचीन संस्कृति पर आधारित था। जो हमारी गौरवपूर्ण संस्कृति थी, हमारे इतिहास नायक और नायिकाएं थी उनके माध्यम से देश में पुनर्जागरण लाया  गया। यह कार्य खासतौर पर प्रसाद ने धु्रवस्वामिनी,चन्द्रगुप्त आदि के माध्यम से किया। बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक तक आते आते प्रहसन और व्यंग्य पर आधारित नाटक लिखे जाने लगे। इसमें अंबिकादत्त त्रिपाठी, सीय स्वयंवर, राचरित्र उपाध्याय, देवी द्रौपदी, रामनरेश त्रिपाठी सुभद्रा,गौरीशंकर प्रसाद, बेचनशर्मा उग्र, लक्ष्मीनारायण मिश्र आदि का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने प्रहसन के माध्यम से समाजिक, राजनैतिक, धार्मिक रूढि़यों पर प्रहार किया।
 लेकिन आजादी के बाद विषय बदल गये। भारतीयता की कई विडम्बनाएं सामने आती है जैसे दलित, कामकाजी स्त्रियां बनना, भष्टाचार आदि। इन सभी ने हिंदी समस्त सभी भाषाओं के रंगमंच के विषय को बदलने की राह दिखाई। इन नाटकों को यथार्थमूलक नाटक भी कहा जाता है। मोहन राकेश का ‘आधे-अधूरे’, स्वदेश दीपक का कोर्टमार्शल, मुद्राराक्षस का तिलचट्टा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का बकरी मुख्य नाटक है। इन नाटकों में जहां एक ओर परंपरागत रूढि़वादी मूल्यव्यवस्था का समर्थन करते हैं वहंी दूसरी ओर नयी पीढ़ी उन मूल्यों का विरोध करती भी नजर आती है। परिवार में तनाव इन परिस्थियों में आता है। परिवारों का टूटना इस समय की सबसे बड़ी समस्या है।
भारत आज महानगरीय देश बनता जा रहा है। इस 21वीं शताब्दी में भारत अपनी पहचान खुद खोज रहा है। ऐसे में भारतीयता को अपना अर्थ खोजने में खासा मशक्कत करनी होगी। नाटकों की भूमिका हमेशा ही दोहरी होती है। एक तो साहित्य की तरह यह समाज का दर्पण है और दूसरी ओर मनोरंजन के बदलते स्वरूप में अपनी जगह । मोहन राकेश के बाद कई नाटककारों ने इस क्षेत्र में कार्य किया।
नाटक के क्षेत्र में एक नया प्रयोग देखने को मिल रहा है वह है कहानी का रंगमंच। इसमें समकालीन कहानीकार उदय प्रकाश की कहानियों को शामिल किया जा सकता है। उनकी कई कहानियों को रंगमंच पर उभारा जा रहा है। तिरिछ और मोहनदास। ऐसे ही प्रयोग पहले भी देखे गये है। प्रेमचंद्र, अमरकांत, रेणु और हरिशंकर परसाई की कहानियों का मंचन हो चुका है। इसका कारण है ये कहानियां तमाम ऐसी समस्याएं लेकर आती है जो कि जनता देखना चाहती है या जो इसके करीब है। रंगमंच की ही तरह बड़े सिनेमा के परदो पर भी उपन्यासों पर फिल्म बनी है जिसका चलन इन दिनों भी देखा जा रहा है।

हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेन्दु मंडल के नाटककारों ने जनता को जागृत करने के उद्देश्य से नाटकों की रचना की। भारतेन्दु ने पहला आलोचनात्मक निबंध भी नाटक पर ही लिखा। यह बात नाटक की व्यापक स्वीकृति की ओर इशारा करती है। जिसमें उन्होंने उस समय की सामाजिक समस्याओं का उठाया। इसके बाद प्रसाद ने उच्चकोटि के नाटक लिखकर हिंदी नाटक साहित्य को समृद्धि प्रदान की।जार्ज इब्सन आदि पाश्चात्य नाटककारों का प्रभाव इस युग में भारतीय नाटककारों पर पड़ा। नाटक परिवर्तनकारी होता है। समय के साथ उसकी समस्याएं, कहने का ढंग सब कुछ बदलता है। परिस्थि को देखते हुए इसने भी अपना रूप बदला। समकालीन नाटकों में विषय से लेकर कहने का ढ़ंग सब कुछ बदल चुका है। अब कई नाटककार नाटकों की प्रस्तुति में टैक्नाॅलजी का भरपूर प्रयोग करते दिख रहे हैं।

असगर वजाहत का एक नया नाटक आया है गोडसे/गांधी.काॅम। यह हमारे समाजिक और राजनैतिक गांधी की प्रासंगिकता को पुनः खोजने का प्रयास करता है।
इस दिशा में हम स्वदेश दीपक का नाटक कोर्टमार्शल को भी देख सकते हैं। जिसमें जीवन के यथार्थ को दिखाया है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाटक बकरी भी इस उल्लेखनीय है। इसके साथ धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ और दुष्यंत कुमार का ‘एक कंठ विषपायी’ यह मिथकों को लेकर लिखे गये नाटक है। इसमे प्राचीन भारतीय संस्कृति से संदर्भ लेकर नयी प्रश्न उठाये गये है। अगर उर्दू नाटक का जिक्र करे तो उसमें जहाक का ‘जिकरा’ को गिना जा सकता है।
रंगमंचकार हमेशा से ही कुछ अच्छा काम करके फिल्मों की ओर जाते रहे हैं और मैं इसे बुरा भी नहीं मानता हूं। अब तो यह अभिनेता टी.वी. सीरियल का रूख भी कर रहे हैं। रंगमंच और सिनेमा  दोनों का उद्देश्य एक ही है मनोरंजन के साथ समाज की कुरीतियों पर प्रहार। अंतर यही है कि नाटक का टेक्नीकल स्वरूप है सिनेमा। दोनों ही कहानी कहते है। दृश्य और श्रव्य माध्यम से। सिनेमा को कभी भी कम नहीं आंकना चाहिए। समय के बदलते स्वरूप में दोनों अपनी भूमिका निभाते है। कई मामलों में फिल्म का असर और पहुंच नाटकों से ज्यादा है। अगर नुक्कड नाटकों को छोड़ दिया जाये तो आज रंगमंच की पहुंच जनता से काफी दूर हो गयी है। यह एक विशेष वर्ग के लिए ही बनता जा रहा है। और जहां तक नुक्कड़ नाटकों की बात है वह मुख्यतः विचारधारा के प्रचार का एक इंस्टूमेंट यां यू करे राजनैतिक का दिलचस्प औजार बनता जा रहा है। सिनेमा ज्यादा सुलभ है इसकी अपेक्षा नाटक करवाना ज्यादा मुश्किल काम है। थियेटर बहुत बलिदान मांगता है।

सर्वनाम


पुकारा तो हमेशा गया उसे
लेकिन वैसे ही जैसे
बेगार को बुलाया गया हो
दुखी के बजाय उसका बेटा
उपस्थित था वो हर रचना में
गुमनाम सा
जैसे
इंडिया गेट , विक्टोरिया पैलेस , गेटवे ऑफ़ इंडिया इत्यादि के
शिलापट्ट पर मजदूर!

जब भी सर्वनाम ने कुछ अपनी
सुनानी चाही
पाणिनि से पार्लियामेंट तक
सबकी भृकुटी तन गयी
इसलिए वैयाकरणों ने निष्कर्ष निकाला है-
सर्वनाम पर
बगावत के जुर्म में रा. सु. का. लगने वाला है.

सांवली लड़कियां

क्या तुमने देखा है  उषाकाल के आकाश को? क्या खेतो में पानी पटाने पर मिट्टी का रंग देखा है? शतरंज की मुहरें भी बराबरी का हक़ पा जाती हैं  जम्बू...