Friday, September 14, 2012
सामासिक संस्कृति
सभ्यता
दाल-भात है !
स्वाद
है संस्कृति?
केवल
दाल-भात पेट तो भर देता है
लेकिन
कभी-कभी एक अदद हरी मिर्च
(नमक
के साथ)
स्वाद
बढ़ा देती है
मिर्च
कड़वी भी हो सकती है !
(
फिर मीठी मिर्ची कभी सुनी भी तो नहीं !)
मिर्च
कई तरह से खा सकते हैं –
हो
सकता है बने चटनी
लोढ़े-सिलबट्टे
पर ।
बन
जाएगा आचार , यदि
भर
दें उसमें थोड़ा सा मसाला और धन ।
यह
बात भूख से निकली थी
और
भूख संस्कृति नहीं होती
संस्कृति
है स्वाद –
स्वाद
: मेहनत का , पसीने का , खून का ।
इन्ही
को समेट लो कवि !
सामासिक
संस्कृति है यही , यही ।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
समकालीन जनमत में कविताएँ
कुछ कविताएँ समकालीन जनमत पत्रिका के पोर्टल पर प्रकाशित हुई थीं। आप इस लिंक के ज़रिये उन्हें पढ़ सकते हैं। https://samkaleenjanmat.in/poems...
-
‘‘स्वच्छन्द काव्य भाव-भावित होता है, बुद्धि-बोधित नहीं। इसलिए आंतरिकता उसका सर्वोपरि गुण है। आंतरिकता की इस प्रवृति के कारण स्वच्छन्द का...
-
डॉ कलाम! अच्छा हुआ आप चले गए। अच्छा हुआ आप हिन्दू ह्रदय सम्राटों के पैरों में बैठ गए अच्छा हुआ आप साईँ बाबा और शंकराचार्यों के आशीर्वाद...
-
देखा विवाह आमूल नवल, तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल। देखती मुझे तू हँसी मन्द, होंठो में बिजली फँसी स्पन्द उर में भर झूली छवि सुन्दर, प्रिय क...
No comments:
Post a Comment