Saturday, August 18, 2012

केरल के वायनाड में बच्‍चों ने प्रेमचंद को याद किया


केरल के वायनाड में बच्‍चों ने प्रेमचंद को याद किया

1 AUGUST 2011
♦ नीलांबुज
केरल एक सुंदर जगह है। यहां के वायनाड जिले में केंद्रीय विद्यालय, कल्पेट्टा के राजभाषा विभाग के बैनर तले एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी प्रेमचंद जयंती की पूर्व-संध्या पर हुई। विषय था, प्रेमचंद और बाल मनोविज्ञान। हर्ष की बात है कि केरल के आदिवासी बहुल इस इलाके में प्रेमचंद को जानने, समझने और चाहने वाले खूब लोग हैं। यद्यपि यह एक सरकारी कार्यक्रम था, इसका तेवर जनोन्मुख था। राजभाषा की जटिलताओं से दूर बच्चों के प्यारे लेखक प्रेमचंद की सरल भाषा वाली रचनाएं थीं। बच्चों के बनाये गये पोस्टर थे, उनकी सहभागिता थी। वक्ताओं में डॉ सिंधु (एर्नाकुलम विश्वविद्यालय, एर्नाकुलम) और डॉ मिनी प्रिया (सेंट थोमस कॉलेज, त्रिशूर) ने अपने विचार व्यक्त किये।
डॉ सिंधु ने प्रेमचंद के जीवन से जुडी बारीक बातों को बच्चों के सामने सरल ढंग से पेश किया। उनके कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने पूस की रात कहानी का मलयालम अनुवाद किया था, जिसे हमारे विद्यालय की दसवीं कक्षा की एक छात्रा अंजू सी ने प्रस्तुत किया। इस RECREATION में केरल की संस्कृति के अनुरूप ही बदलाव कर दिये गये थे। इस प्रयास को बच्चों ने खूब पसंद किया। इसके अलावा सिंधु जी ने प्रेमचंद के जीवन से जुडी यादगार तस्वीरों को कंप्यूटर के जरिये प्रस्तुत किया। उन्होंने बच्चों से प्रेमचंद की ही तरह साधारण किंतु महत्वपूर्ण मुद्दों पर लिखने की अपील भी की।
डॉ मिनी प्रिया जी ने अपने सारगर्भित भाषण में प्रेमचंद के साहित्य को आजादी के बाद के परिवेश में समझने पर बल दिया। उन्होंने हरिशंकर परसाई की एक रचना से उद्धृत एक प्रसंग का उल्लेख किया। एक बच्चे द्वारा स्वतंत्रता के बुनियादी अर्थ पर ही सवाल उठाया जाता है, जब उसे घर में ही परिवार द्वारा अनेक गुलामियां सहन करनी पड़ती हैं। प्रेमचंद ऐसे ही बच्चों के कलाकार थे। प्रेमचंद बच्चों ही नहीं, बचपन को बचाने पर बल देते हैं, ऐसी बातें मिनी प्रिया जी के भाषण से निकल कर सामने आयीं। उन्होंने विद्यालय के बच्चों के योगदान की भी सराहना की और कहा कि ऐसे ही बच्चे प्रेमचंद की संवेदना का विषय थे।
कार्यक्रम में जिन बच्चों ने सहभागिता की उनमें से कुछ हैं… श्रीजिता, श्रेयस, हरिता, अंजलि जो जेम्स, अक्षय किशन, उन्नी कृष्णन, ब्लेसन, जोन, श्रद्धेय, आर्या, श्रेया, अक्षय, रिशिका, एबिन जकारिया, अश्वती और जिना थोमस।
कार्यक्रम में श्रद्धा, सुष्मिता मेरी रोबिन्‍सन, श्रीमती मिनी, विजेंद्र कुमार मीना और अश्वती ने सक्रिय योगदान दिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रधानाचार्या केजी सुजया ने हिंदी के इस कार्यक्रम के लिए अतिथियों को बधाई दी और हिंदी के प्रोत्साहन के लिए अपनी प्रतिबद्धता जतायी।
कार्यक्रम का संचालन नीलांबुज ने किया।

अल्ट्रा मेट्रो सिटी बंगलौर रिपोर्टिंग सर!


अल्ट्रा मेट्रो सिटी बंगलौर रिपोर्टिंग सर!

2 NOVEMBER 2011 5 COMMENTS
♦ नीलांबुज

बैंगलोर का एक चेहरा यह भी है…
जब हम स्काउट कैंप, बंगलौर गये थे ट्रेनिंग के लिए, तो दस दिन की ट्रेनिंग में एक दिन दशहरे के नाम पर बाहर छोड़ा गया, शहर घूमने के लिए। सबसे कहा गया कि यात्रा का विवरण लिख कर लाना है। मेरे अंदर खलबली हुई और जो बाहर आया वो ये था…
ल हम लोग दशहरे वाले दिन बंगलौर घूमने निकले। मैं दोस्तों से थोड़ा पीछे रह गया तस्वीरें लेने के चक्कर में। तभी मुझे बंगलौर आता दिखाई दिया। गंदे-स्वच्छ कपड़ों की मिली-जुली पोशाक में। उदास, हताश, परेशान। मैंने पूछ – “क्या हुआ बंधु, राजधानी होकर भी खस्ता हाल? केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाते हो क्या?”
वो बोला, “नहीं, अब इतना भी बुरा हाल नहीं है। लेकिन अच्छा भी नहीं है। लोग समझते हैं, मैं राजधानी हूं। ऐश-ओ-आराम से रह रहा होऊंगा। लेकिन मुझ पर जो बीतती है, मैं ही जानता हूं। हर रोज मेरे सीने पर सैकड़ों नयी गाड़ियां दौड़ा दी जाती हैं। माल, सड़क, कालोनी बनाने के बहाने मेरी हरियाली को नष्ट किया जा रहा है। ये जो मेरे साफ कपड़े हैं, वो तो मेरा वह हिस्सा है, जिसे मीडिया हमेशा दिखाता है। मेरा असली वेश तो मेरे फटे-पुराने कपड़े यानी वो गंदी बस्तियां हैं, जिनको कभी प्रगति की हवा भी नहीं लगी। रोज बेदखल हो रहे हैं ऐसे लोग मेनस्ट्रीम से। मेरे कुछ भाई-बहनों का हाल तो मुझसे भी बुरा है। कल दिल्ली बहन ने फोन किया था। वो भी कोमनवेल्थ के बाद सुंदरता की उम्मीद में थी, लेकिन क्या हुआ? आजकल मुझे भी मेट्रो नाम का झुनझुना देने की तैयारी है। हर जगह जो गड्ढे देख रहे हो, उसी का परिणाम है। चेन्नई-मुंबई बहन और कोलकाता भाई भी इन्‍हीं दिक्कतों से परेशान है। अहमदाबाद सर ने भी कुछ ऐसी ही बात ईमेल से भेजी थी।”
मैं हतप्रभ था! मैंने ऐसे ही कहा, “चलो बंगलौर भाई, चाय पीते हैं…”
बंगलौर ने कहा, “नहीं। चाय पीने की मुझे आदत नहीं है। पेट्रोल और डीजल का धुआं ही मेरा कलेवा है। कूड़े का लंच कर लेता हूं और डिनर भी वही।”
मुझे देर हो रही थी। सोचा कहां फस गया। इसकी तस्वीर उतार लूं क्या? शायद किसी एक्जिबिशन में पुरस्कार ही मिल जाए लेकिन ऐन उसी वक्‍त पर मेरे मोबाइल की बैटरी ने साथ छोड़ दिया।
बंगलौर ने आगे कहा, “नेताओं, मंत्रियों, अफसरों और टूरिस्टों को दिखाने के लिए मुझे सज-संवर कर रहना पड़ता है, वरना हालत बड़ी खराब है भाई।”
तभी एक लाल बत्ती वाली गाड़ी आती दिखी। बंगलौर ने अपनी कमीज का साफ-सुथरा वाला हिस्सा गाड़ी की तरफ कर दिया। मुझे लगा जैसे कह रहा हो, “अल्ट्रा मेट्रो सिटी बंगलौर रिपोर्टिंग सर!”

मोहल्ला लाइव पर यहाँ पढ़ें। 
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हिंदी सप्ताह की एक छटा त्रिशूर में भी चमकी




19 SEPTEMBER 2011 
♦ नीलांबुज

ब सारा देश प्रायोजित रूप से हिंदी पखवाड़ा मना रहा है, उस समय हम ‘विकल्प’ की तलाश में हैं। जी हां, एक ऐसा मंच है ‘विकल्प’ जो गुटबंदी की गंदगी से परे एक पुरकशिश कोशिश है कुछ हिंदी प्रेमियों की।
फेसबुक पर मित्र बनी डॉ शांति नायर ने सबसे पहले इसके बारे में बताया। एर्नाकुलम जिले में कालड़ी के संस्कृत विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के कुछ उत्साही और समर्पित साथियों ने इस मुहिम को शुरू किया है।
एक खास बात जो मुझे अच्छी लगी – गोपालस्वामी जी ने बताया कि हम लोग हर दो महीने पर किसी पुस्तक पर चर्चा करते हैं। पुस्तक पहले ही तय कर दी जाती है। सारे सदस्य उस किताब को खरीद कर पढ़ते हैं। फिर उस पर चर्चा होती है। अब तक हर विधा की महत्वपूर्ण किताबों पर चर्चा हो चुकी है। इस बार जो पुस्तक चर्चा के लिए चुनी गयी है, वह है – सूरजपाल चौहान जी की ‘तिरस्कृत’।
केरल के एक छोटे से शहर त्रिशूर में यह ‘विकल्प’ का छठवां सम्मलेन था। वरिष्ठ व्यंग्यकार गोविंद शेनॉय (85 वर्ष) मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से एक प्रेरणा रहे। उनका उत्साही व्यक्तित्व ‘काल से होड़’ लेता दिखा।
डॉ गोपालस्वामी जितने सरल और कर्मठ हैं, उतने ही उदार भी। संस्था के सचिव के रूप में उनसे मिलने से पहले त्रिशूर रेलवे स्टेशन पर ही हम उनसे एक जिम्मेदार आयोजक के रूप में मिले। रात 10:30 पर भी वह हमारा इंतजार करते हुए मिले।
सुबह उन्होंने आयोजन स्थल पर सबसे परिचय करवाया। काफी बड़ी संख्या में बीए, एमए, एमफिल और पीएचडी के विद्यार्थी वहां थे। हिंदी के अध्यापक तो थे ही। कुछ अन्य हिंदी प्रेमी भी थे। यहां तक की बच्‍चे भी थे।
गोष्‍ठी का विषय था – “कविता का वर्तमान”।
डॉ पी रवि ने इसी नाम से एक किताब का संपादन भी किया है, जिसका लोकार्पण गोविंद शेनॉय जी ने किया। ‘जन विकल्प’ नाम की पत्रिका का प्रवेशांक भी जारी किया गया।
बाकी तो वो सब हुआ यहां भी, जो हर जगह होता ही है। उसका उल्लेख नहीं करूंगा।
काफी सारी यादें लेकर हम लोग लौटे हैं वायनाड। अच्छा लग रहा है।

Thursday, August 2, 2012

अंतिम पंक्ति का शीर्षक




तर्जनी , मध्यमा, अनामिका
और यहाँ तक कि कनिष्ठा भी
पा जाती हैं मुझ से ज्यादा इज्ज़त
लेकिन द्रोणाचार्यों  के बीच तो
मैं ही लोकप्रिय हूँ.
मैं ओ के  हूँ
मैं चीयर्स हूँ
मैं शेम हूँ
मैं लिफ्ट हूँ , हूट हूँ
मैं लाइक और डिसलाइक का फ्रेम हूँ
और तो और मैं कोका  कोला का
प्रसिद्ध ब्रांड हूँ
मैं अपने आप में अनूठा हूँ
मैं अंगूठा हूँ

सरोज-स्मृति : निराला - व्याख्या जैसा कुछ


देखा विवाह आमूल नवल, तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल। देखती मुझे तू हँसी मन्द, होंठो में बिजली फँसी स्पन्द उर में भर झूली छवि सुन्दर, प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर तू खुली एक उच्छवास संग, विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग, नत नयनों से आलोक उतर काँपा अधरों पर थर-थर-थर। देखा मैनें वह मूर्ति-धीति मेरे वसन्त की प्रथम गीति -- श्रृंगार, रहा जो निराकार, रस कविता में उच्छ्वसित-धार गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग -- भरता प्राणों में राग-रंग, रति-रूप प्राप्त कर रहा वही, आकाश बदल कर बना मही। हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन कोई थे नहीं, न आमन्त्रण था भेजा गया, विवाह-राग भर रहा न घर निशि-दिवस जाग; प्रिय मौन एक संगीत भरा नव जीवन के स्वर पर उतरा।



इस काव्यांश  में निराला ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह का वर्णन किया है.
‘आमूल’ का अर्थ ‘रेडिकल’ के ज्यादा नज़दीक है. नवल भी उसी नवाचार की प्रतिष्ठा करता है.  निराला ने अपनी पुत्री के विवाह में किसी वेदपाठी ब्राह्मण को नहीं बुलाया. ना तो जन्म-कुंडली मिलवाई. निराला वैसे भी बदनाम थे अपने समाज में. “ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत”.  कोई पंडित राज़ी नहीं था सरोज की शादी के लिए. तो निराला ने निर्णय लिया कि वह स्वयं ये ज़िम्मेदारी उठाएंगे. वे लिखते हैं - “ लग्न के पढूंगा स्वयं मन्त्र , यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र”.
सबसे बड़ी बात , शायद भारतीय भाषाओं के किसी भी साहित्य में किसी पिता ने अपनी पुत्री के सौंदर्य की तुलना अपनी पत्नी के सौंदर्य से नहीं की थी. ना कालिदास ने , ना व्यास ने , ना वाल्मीकि ने ,  ना भवभूति ने , ना कम्ब ने , ना वाणभट्ट आदि ने . यह काम शायद निराला को ही करना था.
सरोज की सुहागन वाली छवि निराला को बार बार मनोहर देवी की याद दिलाती है. जब कलश के जल से वधू को स्नान कराया गया , तो निराला को अपनी प्रिया यानी मनोहरा देवी की सबसे ज्यादा याद आई. क्यों ? क्योंकि यह काम परंपरागत रूप से लड़की की माँ ही करती है.  जब सरोज ने इस अवसर पर अपने पिता की तरफ हँसते हुए देखा तो अकस्मात ही निराला के ह्रदय में अपनी पत्नी की छवि उभर आई.
‘प्रिय की अशब्द श्रृंगार मुखर...” का अर्थ है कि मानो मनोहरा देवी का सौंदर्य ही सरोज के सहज उच्छ्वास के साथ साकार हो उठा हो . सरोज के अंग अंग से मनोहरा की कान्ति फूट रही है , यह इतना सहज है कि दोनों एकाकार हो उठे हैं. सरोज के अंग अंग से जो कान्ति निकल रही है , वह लगातार कवि को अपनी प्रियतमा की याद दिला रही है.
कवि एक फ्लैशबैक में चला जाता है. उसे अपनी प्रियतमा के संग बिताए गए क्षण याद आने लगते हैं. निराला को मनोहरा देवी का सौंदर्य और उनका मधुर गला याद आने लगता है. वो गीत जो उन्होंने अपनी पत्नी से सीखा था – “श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं”जिसने उनके प्राणों में नया उत्साह भर दिया था . ( ‘निराला की साहित्य साधना -१ : राम विलास शर्मा )

कवि कहता है कि सरोज का रूप देखकर ऐसा लगता है कि मानो कामदेव ने वही रूप आज मेरी बेटी को दे दिया है. “आकाश बदल कर बना मही”में ये ध्वनि है कि अगर मनोहरा का सौंदर्य आकाशधर्मा था , तो सरोज का सौंदर्य वसुधा-धर्मी. अर्थात मनोहरा में कल्पना की प्रधानता थे और सरोज में यथार्थ की.

बाकी पंक्तियाँ साधारण ही हैं. उसमें खास ये हैं कि निराला ने जो विवाह सरोज का किया , उसमें किसी रिश्तेदार आदि को न बुलाकर केवल आत्मीय स्वजनों को बुलाया. इसका विवरण भी ‘निराला की साहित्य साधना -१’ में दिया गया है.
अंतिम पंक्तियों में निराला लिखते हैं कि जिस घर में कुछ दिनों से दिन रात ‘विवाह राग’ बज रहा था , अचानक वह सूना हो गया . सूना भी वैसा नहीं, एक मौन संगीत जैसे कहीं बज रहा हो, और एक नए जीवन का स्वागत कर रहा हो .  आचार्य शुक्ल ने तो लिखा ही है कि – “कविता को संगीत के और संगीत को कविता के निकट लाने का जैसा प्रयास निराला ने किया है , वैसा किसी आधुनिक  हिंदी के कवि ने नहीं किया.” ( हिंदी साहित्य का इतिहास)


Tuesday, July 17, 2012

विकल्प





पेड़ से झूल रही रस्सी का
आप क्या बनाएँगे ?

बच्चों का झूला
या
फाँसी का फंदा ?

रासायनिक परिवर्तन


जब पहली बार
बैठा था वो 
'पिज्जा हट' में 
तो उसे याद आई थी 
चूल्हे की अधजली रोटी,

याद आई थी उसे 
अपनी टपकती हुई झोपडी
जब लिफ्ट से उसने 
पच्चीसवें माले पर कदम रखा था,

बूढ़े बॉस के चेहरे की 
लालिमा की तुलना
उसने जवान भाई के
मुरझाये हुए चेहरे से की थी,

शहर की चमचमाती सड़कों में 
उसे रह रह कर 
गाँव की गड्ढे वाली कच्ची सड़क
याद आई थी,

उसे जब पहली बार मिला 
कॉर्पोरेट कंपनी से
'पेमेंट' का चेक
तब उसे कुछ याद नहीं रहा...

अब वो खुश है !


सांवली लड़कियां

क्या तुमने देखा है  उषाकाल के आकाश को? क्या खेतो में पानी पटाने पर मिट्टी का रंग देखा है? शतरंज की मुहरें भी जहां पा जाती हैं बराबरी का हक़  ...