Thursday, October 25, 2012

बलिया में कब लगेगा पुस्तक मेला

बलिया एक पुराना शहर है। यहाँ का साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान किसी से छिपा नहीं है। यहीं पर 1884 में भारतेन्दु ने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था। उसके बाद से गंगा , घाघरा और गंडक में काफी पानी बह चुका है। ददरी मेले में हर साल भारतेन्दु मंच पर कवि सम्मेलन और मुशायरे होते हैं। इसमें भाड़े के भाड़ काफी आते रहते हैं। किन्तु दुखद है कि गौरवशाली परंपरा वाले इस मेले में आज तक पुस्तक मेले का आयोजन नहीं हुआ। आज भी पीली कवर वाली 'रहस्यपूर्ण' किताबें ही इस मेले को मुह चिढ़ाती हुई बिकती रहती हैं।

जिस बलिया ने भगवतशरण उपाध्याय, हजारी प्रसाद द्विवेदी,  अमरकान्त और केदारनाथ सिंह जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों को पैदा किया , वहाँ आज पढ़ने की परम्परा खत्म हो रही है। फॉर्म बेचने वालों की बढ़ती दुकाने , यहाँ के युवा वर्ग  में रोजगार को लेकर बढ़ती बेचैनी का प्रतीक हैं। इस बीच बुक स्टाल वाले भी किसी किस्म का रिस्क नहीं लेते और फॉर्म के अलावा सिर्फ सरस सलिल या गृहशोभा मार्का किताबें ही रखते हैं। बलिया रेलवे स्टेशन पर भी दो दुकानें हैं किताबों की। इसमें भी व्हीलर पर 'लोकप्रिय' साहित्य तो खूब मिलता है किन्तु उसी के बगल में 'सर्वोदय' बुक स्टाल अपनी किस्मत पर बिसूरता रहता है।

ये सब बातें सिर्फ इस पीड़ा में लिख गया कि मैं काफी दिनों बाद बलिया आया था। केरल और त्रिपुरा में रहते हुए हिन्दी किताबों की भूख बहुत बढ़ गई थी। तो यहाँ आते ही टूट पड़ा। जहां मिला , जो मिला , खरीद रहा हूँ। लेकिन जब सुनता हूँ दिल्ली , लखनऊ , पुणे , पटना , इलाहाबाद और कोलकाता के पुस्तक मेलों के बारे में तो सोचता हूँ कि क्या किताबें पढ़ने का हक या अवसर केवल बड़े शहरों को ही दिया जाएगा ? 

Friday, October 5, 2012

बाल साहित्य उपेक्षित क्यों ?


ये लेख इस्पातिका में एक पूर्वपीठिका के रूप में प्रकाशित हुआ है। देखिये पीठ कैसी होती है। इंतज़ार कीजिये। 

Sunday, September 30, 2012

कवि को 'देस निकाला'?

यहाँ पर  आप मेरी एक पुरानी पोस्ट पढ़ सकते हैं । मोहल्ला लाइव पर ये मेरी पहली पोस्ट थी। काफी आक्रोश में लिखी थी। सिर्फ याद करने के लिए लगा रहा हूँ । 

ग़ज़ल और बाल साहित्य

ये दो गजलें और नीचे का एक लेख प्रभात खबर में आए थे। आज लगा ही तो दिया यहाँ पर । 


प्रगतिशील कविता और नागार्जुन







नज़ीर की काव्यभाषा







इसपातिका में प्रकाशित एक शोध लेख । सुधीजनों के लिए । मेरे एम फिल शोध कार्य की एक झलक। 

Friday, September 14, 2012

सामासिक संस्कृति


सभ्यता दाल-भात है !
स्वाद है संस्कृति?
केवल दाल-भात पेट तो भर देता है
लेकिन कभी-कभी एक अदद हरी मिर्च
(नमक के साथ)
स्वाद बढ़ा देती है
मिर्च कड़वी भी हो सकती है !
( फिर मीठी मिर्ची कभी सुनी भी तो नहीं !)
मिर्च कई तरह से खा सकते हैं –
हो सकता है बने चटनी
लोढ़े-सिलबट्टे पर ।
बन जाएगा आचार , यदि
भर दें उसमें थोड़ा सा मसाला और धन ।
 
यह बात भूख से निकली थी
और भूख संस्कृति नहीं होती
संस्कृति है स्वाद –
स्वाद : मेहनत का , पसीने का , खून का ।
इन्ही को समेट लो कवि !
सामासिक संस्कृति है यही , यही ।
 

Thursday, September 13, 2012

हिन्दी नाटक , सिनेमा और समाज



भारतीयता ने कई बार अपने अर्थ को बदला है। आजादी से पहले भारतीयता का अर्थ देशभक्ति से लिया जाता था।  लेकिन विभिन्न कारणों से आजादी के बाद भारतीयता की अभिव्यक्ति दूसरों तरीको से होने लगी। अब भारतीयता फिल्मों में, राष्ट्रीय त्योहारों और खेलों में नजर आने लगी। आजादी के पहले के नाटकों का विषय प्राचीन संस्कृति पर आधारित था। जो हमारी गौरवपूर्ण संस्कृति थी, हमारे इतिहास नायक और नायिकाएं थी उनके माध्यम से देश में पुनर्जागरण लाया  गया। यह कार्य खासतौर पर प्रसाद ने धु्रवस्वामिनी,चन्द्रगुप्त आदि के माध्यम से किया। बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक तक आते आते प्रहसन और व्यंग्य पर आधारित नाटक लिखे जाने लगे। इसमें अंबिकादत्त त्रिपाठी, सीय स्वयंवर, राचरित्र उपाध्याय, देवी द्रौपदी, रामनरेश त्रिपाठी सुभद्रा,गौरीशंकर प्रसाद, बेचनशर्मा उग्र, लक्ष्मीनारायण मिश्र आदि का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने प्रहसन के माध्यम से समाजिक, राजनैतिक, धार्मिक रूढि़यों पर प्रहार किया।
 लेकिन आजादी के बाद विषय बदल गये। भारतीयता की कई विडम्बनाएं सामने आती है जैसे दलित, कामकाजी स्त्रियां बनना, भष्टाचार आदि। इन सभी ने हिंदी समस्त सभी भाषाओं के रंगमंच के विषय को बदलने की राह दिखाई। इन नाटकों को यथार्थमूलक नाटक भी कहा जाता है। मोहन राकेश का ‘आधे-अधूरे’, स्वदेश दीपक का कोर्टमार्शल, मुद्राराक्षस का तिलचट्टा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का बकरी मुख्य नाटक है। इन नाटकों में जहां एक ओर परंपरागत रूढि़वादी मूल्यव्यवस्था का समर्थन करते हैं वहंी दूसरी ओर नयी पीढ़ी उन मूल्यों का विरोध करती भी नजर आती है। परिवार में तनाव इन परिस्थियों में आता है। परिवारों का टूटना इस समय की सबसे बड़ी समस्या है।
भारत आज महानगरीय देश बनता जा रहा है। इस 21वीं शताब्दी में भारत अपनी पहचान खुद खोज रहा है। ऐसे में भारतीयता को अपना अर्थ खोजने में खासा मशक्कत करनी होगी। नाटकों की भूमिका हमेशा ही दोहरी होती है। एक तो साहित्य की तरह यह समाज का दर्पण है और दूसरी ओर मनोरंजन के बदलते स्वरूप में अपनी जगह । मोहन राकेश के बाद कई नाटककारों ने इस क्षेत्र में कार्य किया।
नाटक के क्षेत्र में एक नया प्रयोग देखने को मिल रहा है वह है कहानी का रंगमंच। इसमें समकालीन कहानीकार उदय प्रकाश की कहानियों को शामिल किया जा सकता है। उनकी कई कहानियों को रंगमंच पर उभारा जा रहा है। तिरिछ और मोहनदास। ऐसे ही प्रयोग पहले भी देखे गये है। प्रेमचंद्र, अमरकांत, रेणु और हरिशंकर परसाई की कहानियों का मंचन हो चुका है। इसका कारण है ये कहानियां तमाम ऐसी समस्याएं लेकर आती है जो कि जनता देखना चाहती है या जो इसके करीब है। रंगमंच की ही तरह बड़े सिनेमा के परदो पर भी उपन्यासों पर फिल्म बनी है जिसका चलन इन दिनों भी देखा जा रहा है।

हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। भारतेन्दु मंडल के नाटककारों ने जनता को जागृत करने के उद्देश्य से नाटकों की रचना की। भारतेन्दु ने पहला आलोचनात्मक निबंध भी नाटक पर ही लिखा। यह बात नाटक की व्यापक स्वीकृति की ओर इशारा करती है। जिसमें उन्होंने उस समय की सामाजिक समस्याओं का उठाया। इसके बाद प्रसाद ने उच्चकोटि के नाटक लिखकर हिंदी नाटक साहित्य को समृद्धि प्रदान की।जार्ज इब्सन आदि पाश्चात्य नाटककारों का प्रभाव इस युग में भारतीय नाटककारों पर पड़ा। नाटक परिवर्तनकारी होता है। समय के साथ उसकी समस्याएं, कहने का ढंग सब कुछ बदलता है। परिस्थि को देखते हुए इसने भी अपना रूप बदला। समकालीन नाटकों में विषय से लेकर कहने का ढ़ंग सब कुछ बदल चुका है। अब कई नाटककार नाटकों की प्रस्तुति में टैक्नाॅलजी का भरपूर प्रयोग करते दिख रहे हैं।

असगर वजाहत का एक नया नाटक आया है गोडसे/गांधी.काॅम। यह हमारे समाजिक और राजनैतिक गांधी की प्रासंगिकता को पुनः खोजने का प्रयास करता है।
इस दिशा में हम स्वदेश दीपक का नाटक कोर्टमार्शल को भी देख सकते हैं। जिसमें जीवन के यथार्थ को दिखाया है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का नाटक बकरी भी इस उल्लेखनीय है। इसके साथ धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ और दुष्यंत कुमार का ‘एक कंठ विषपायी’ यह मिथकों को लेकर लिखे गये नाटक है। इसमे प्राचीन भारतीय संस्कृति से संदर्भ लेकर नयी प्रश्न उठाये गये है। अगर उर्दू नाटक का जिक्र करे तो उसमें जहाक का ‘जिकरा’ को गिना जा सकता है।
रंगमंचकार हमेशा से ही कुछ अच्छा काम करके फिल्मों की ओर जाते रहे हैं और मैं इसे बुरा भी नहीं मानता हूं। अब तो यह अभिनेता टी.वी. सीरियल का रूख भी कर रहे हैं। रंगमंच और सिनेमा  दोनों का उद्देश्य एक ही है मनोरंजन के साथ समाज की कुरीतियों पर प्रहार। अंतर यही है कि नाटक का टेक्नीकल स्वरूप है सिनेमा। दोनों ही कहानी कहते है। दृश्य और श्रव्य माध्यम से। सिनेमा को कभी भी कम नहीं आंकना चाहिए। समय के बदलते स्वरूप में दोनों अपनी भूमिका निभाते है। कई मामलों में फिल्म का असर और पहुंच नाटकों से ज्यादा है। अगर नुक्कड नाटकों को छोड़ दिया जाये तो आज रंगमंच की पहुंच जनता से काफी दूर हो गयी है। यह एक विशेष वर्ग के लिए ही बनता जा रहा है। और जहां तक नुक्कड़ नाटकों की बात है वह मुख्यतः विचारधारा के प्रचार का एक इंस्टूमेंट यां यू करे राजनैतिक का दिलचस्प औजार बनता जा रहा है। सिनेमा ज्यादा सुलभ है इसकी अपेक्षा नाटक करवाना ज्यादा मुश्किल काम है। थियेटर बहुत बलिदान मांगता है।

सर्वनाम


पुकारा तो हमेशा गया उसे
लेकिन वैसे ही जैसे
बेगार को बुलाया गया हो
दुखी के बजाय उसका बेटा
उपस्थित था वो हर रचना में
गुमनाम सा
जैसे
इंडिया गेट , विक्टोरिया पैलेस , गेटवे ऑफ़ इंडिया इत्यादि के
शिलापट्ट पर मजदूर!

जब भी सर्वनाम ने कुछ अपनी
सुनानी चाही
पाणिनि से पार्लियामेंट तक
सबकी भृकुटी तन गयी
इसलिए वैयाकरणों ने निष्कर्ष निकाला है-
सर्वनाम पर
बगावत के जुर्म में रा. सु. का. लगने वाला है.

Thursday, August 30, 2012

कागज़ी है पैराहन







आज प्यारी डायरी को लिखा फिर से,
खो गयी थी ये , ना जाने क्या हुआ था/
मिस किया था -
ये तो है बिल्कुल ही लाजिम./ आज फिर से 
रंग दिए पन्ने कई/ कुछ मज़ा आया.
मीत से जैसे मिले हों!
इन इशारों में ना जाने बात क्या है,
कागज़ी है पैराहन , अब क्या लिखें हम!!!

स्वच्छन्द रीतिकाव्य और घनानन्द की कविता




‘‘स्वच्छन्द काव्य भाव-भावित होता है, बुद्धि-बोधित नहीं। इसलिए आंतरिकता उसका सर्वोपरि गुण है। आंतरिकता की इस प्रवृति के कारण स्वच्छन्द काव्य की सारी साधन-सम्पत्ति शासित रहती है और यहीं वह दृष्टि है जिसके द्वारा इन कर्ताओं की रचना के मूल उत्स तक पहुँचा जा सकता है।’’

कविता  स्वभाव से ही मुक्ति-धर्मा होती है। ज़ाहिर है, हृदय  के तात्कालिक उद्रेक में व्यक्त अनुभूति ही सच्ची कविता हो सकती है। किन्तु जब कविता को किसी ख़ास चैखटे में कैद कर उसकी साधना की जाती है तो वह वैसा आह्लाद उत्पन्न नहीं करती।

उत्तर-मध्यकालीन हिन्दी कविता, जिसे रीतिकालीन कविता के नाम से अभिहित किया जाता है, साहित्येतिहास में प्रसिद्ध ही इसलिए है कि कविता को कुछ सीमित भावों, विषयों और लक्षणों में बाँध दिया गया। इक्के-दुक्के कवियों को छोड़ दें, तो सिवाय उनके ‘नाम’ के, कई बार, कुछ भी अंतर नहीं पता लगता। हर कविता एक ही शैली, कवि-परिपाटी, रूढि़यों पर आधारित दिखती है। ‘रीति’ का अर्थ ही है- एक ख़ास ढंग की परिपाटी - एक ‘स्टाइल’। अतः रीतिकालीन ज्यादातर सीमित भाव-बोधात्मक हैं तो आश्चर्य नहीं। किन्तु इसी काल में कुछ कवि ऐसे हुए जिन्होंने ‘लीक छोड़कर चलने’ का कार्य किया। इसलिए इन्हें ‘स्वच्छन्द’ कवि कहा गया। इनकी कविता ही नहीं व्यक्तित्व भी स्वच्छन्द था। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के शब्दों में -
‘‘स्वच्छन्द धारा का साध्य काव्य और साधन भी काव्य था।.................. जो साध्य पर ध्यान रखकर साधन पर ध्यान रखता है, उसका साध्य-साधन समन्वय बना रहता है।’’

लगभग दो सौ वर्षों ; 1643ई. से 1843ई. द्ध तक के रीतिकालीन साहित्य में स्वच्छन्द वृति के बहुत से कवि हुए हैं।

‘‘स्वच्छन्द प्रवाह के प्रमुख कर्ताओं में रसखान, आलम, ठाकुर, घनानन्द, बोधा और द्विजदेव का नाम लिया जा सकता है।’’
 आचार्य के इस कथन के आलोक में हम उपरोक्त कवियों की कविता को  प्रधानतः स्वच्छन्द कवि कह सकते हैं। स्वच्छन्दतावादी कवियों की कविता की मुख्य विशेषता, व्यक्तिगत अनुभूतियों की लाक्षणिक व्यंजना में हैं। यह अनुभूति कोरे शास्त्रीय ज्ञान से उपार्जित नहीं है बल्कि इन्होंने ‘मुख गाई सोई करी है’। रसखान ने धार्मिक चैहद्दियों को धता बताते हुए ‘कृष्ण’ की कविता करने का ‘कुफ्ऱ किया, जो लोक के निकट है।
घनानन्द ने सामाजिक नैतिकता की परिधि लाँघ से प्रेम किया। इसी प्रकार बोधा और आलम ने क्रमशः सुजान  और शेख़ रंगरेजिन से विवाह किया। सामंती आत्याचार का भी इन्होंने विरोध किया। जब मुहम्मदशाह रंगीले के सैनिकों ने घनानन्द  से धन-उगाही हेतु ‘जर-जर-जर’ कहा तो इन्होंने ब्रजभूमि की एक मुट्ठी लेकर उनकी ओर उछाल दी और कहा ‘रज-रज-रज’। यह ’विरोध में काव्य’ करने की मौलिक प्रतिभा थी।  कवि ठाकुर भी हिम्मतबहादुर के ही दरबार में तलवार निकालकर यह चुनौती देते हैं -

‘‘सेवक सिपाही हम उन राजपूतन के
ढान युद्ध जुरिबे में नेकु जे न मुरके।
......चोजिन के चोजी महा, मौजिन के महाजन
हम कविराज हैं, पर चाकर चतुर के।’’

स्वयं को ‘कविराज’, ‘मौजियों का महाजन’ कहना कवि के आत्मसम्मान और आत्मविश्वास को द्योतक है। हालाँकि स्वयं को 'चाकर' कह कर कवि ने रीति की ही लकीर पीटी है । यह इस युग की सीमाएं भी दर्शाता है , और परास भी । बाद में छायावादी युग में ऐसा ही  आत्मविश्वास निराला में प्रकट हुआ जब उन्होंने लिखा- ‘मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश’। या कुकुरमुत्ता से कहलवाते हैं- ‘घूमता हूँ सिरचढ़ा/ तू नहीं, मैं ही बड़ा।’
स्वच्छन्द कवियों में कालक्रमानुसार कवि सैयद इब्राहिम ‘रसखान’ का नाम उल्लेखनीय है। वैसे तो यह कृष्ण जी की भक्ति-कविता करते थे किंतु अभिव्यक्ति और शिल्प में यह स्वच्छन्द कवि ही हैं। आचार्य  शुक्ल  लिखते हैं-
‘‘शुद्ध ब्रजभाषा को जो चलतापन और सफाई इनकी ; रसखान की द्ध और घनानन्द की रचनाओं में है, वह अन्य़त्र दुर्लभ है।’’
भाषा का सहज सौन्दर्य, कविता में किस तरह भावाभिव्यक्ति को ध्वनित करता है, इसके लिये रसखान की कुछ पंक्तियाँ उदृधृत हैं-
‘‘ 1. नैनन सांे रसखान सबै ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ।
    केतक ही कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
2. नारद से सुक व्यास रहै पचि हारे तउ पुनि पार न पावैं।
  ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भर छाछ पै नाच नचावैं।।
3. या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।’’

प्रथम उदाहरण में प्रकृति-वर्णन, द्वितीय उदाहरण में प्रेम की आध्यात्म पर सफलता और तीसरे उदाहरण में गोपियों के सौतिया डाह का वर्णन है। न तो इसमें कृष्ण ‘ब्रह्म’ के रूप में मंडित है और न ही गोपिया किसी पराशक्ति के रूप में। साधारण सी अहीरनें युवा कृष्ण को अपने सौन्दर्य से लुब्ध किए रहती हैं! भक्ति और अध्यात्म के मुखौटों की कोई ज़रूरत ही नहीं है यहाँ।

स्वच्छन्दतावादी कवि प्रायः  लीक छोड़कर चलने में यक़ीन रखता है। फिर भला बँधी-बँधायी लीक पर वह कैसे चले? जो काव्यशास्त्रीय प्रतिमान सदियों से व्यवह्हत होते हुए अब उबाऊ हो चले थे उनके प्रति एक विद्रोह इन कवियों के यहाँ है। बात चाहे अन्तर्वस्तु की हो या रूपाकार की, हर जगह नवीनता के स्वागत हेतु उत्सुक रहते हैं। नये विषयों का चयन, नये मुहावरों का प्रयोग, नये प्रतीक व बिंब व नये शब्द-प्रयोग। सब कुछ नया। यही प्रकृति द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता के खि़लाफ छायावादी कवि में है। वह भी वाग्देवी वीणावादिनी से नूतन का आह्वाहन करता है -
‘‘नव गति नव लय, ताल छन्द नव
नवल कंठ, नव जलद-मंन्द्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव पर नव स्वर दे!

इसीलिए, जब ठाकुर ने पाया कि काव्य-परंपराओं की लकीर पीटी जा रही है तो उन्होंने लिखा -
‘‘सीखि लीन्हों मीन-मृग-खंजन-कमल नैन
सीखि लीन्हौं जस औ प्रताप को कहानौ है
...... डेल सो बनाए आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कवित्त कीबो खेलि करि जानो है।’’

बस आखि़री पंक्ति के अवलोकन से उसमें छिपा व्यंग्य  पता चलता है। रीतिकाल के ज्यादातर कवि आश्रयदाताओं के लिए लिख रहे थे। आजीविका चलती रहे, इसके लिए इससे आसान कुछ न था कि ‘पुरानी शराब को ही नई बोतलों’में पेश करते रहते। न हींग लगी न फिटकरी और रंग चोखा। किंतु इससे मौलिकता की अपूर्णीय क्षति होती थी। घनानंद ने भी लिखा-

‘लोग है लागि कवित्त बनावत, मोहि तो मेरे कवित्त बनावत’’

कवि का अनुभव ही शब्दों का सहारा पाकर कविता में ध्वनित होने लगा। यह कविता ‘स्वान्तः सुखाय’ तो है ही, अपने व्यक्तिगत अनुभवों का साधारणीकरण सामान्य-जन से करना भी है।

महाकवि सूरदास के काव्य में, विरह पीडि़त नारी अपने प्रिय के लिए बौद्धिक तर्क देती है, उपालम्भ देती हैं, लड़ती है। चाहे अपने पुत्र कृष्ण कन्हैया के लिए यशोदा हो , या अपने प्रियतम मुरलीधर के लिए राधा सहित गोपिकाएँ हों। हिन्दी में विरह-पीडि़त स्त्रियों का तो जि़क्र तो है मगर पुरुषों का ऐसा वर्णन कम ही है। किन्तु जहाँ है, वहाँ बड़ा स्वाभाविक है। नारी तो रोकर, आक्रोशित होकर या लड़कर भी अपने आवेगों को प्रकट कर लेती है किंतु पुरुष अपने ‘पुरुष-दंभ’ के कारण यह भी नहीं कर सकता। वह, आलम के अनुसार, यही कर सकता है-

‘‘आलम जौन से कुंजन में करि केलि वहाँ अब सीस धुन्यों करैं।
नैनन में जे सदा रहतेे तिनकी अब कान कहानी सुन्यौ करैं।।’’

प्रेम की राह कठिन होती है, यह सूर और मीरा के काव्य से हमें पहले ही ज्ञात है। किन्तु रीतिकाल में जब अन्य कवि ‘उधार के प्रेम’ और ‘किराए के आँसू से प्रेम को ‘केलि-क्रीड़ा’ मात्र तक सीमित कर रहे थे तब कवि बोधा यह लिख रहे थे-

‘‘कवि बोधा अनी धनी नेजहु तें चढि़ तापै न चित्त डरावनौ है,
यह प्रेम को पंथ कराल महा तरवार की धार पै धावनौ है।’’

बाद में महाकवि ग़ालिब ने भी लिखा-
‘‘ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजै
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

इन कवियों के अलावा वृन्द, वैताल, गिरिधर कविराज, घाघ आदि ने भी ‘सूक्तिपरक रीतिमुक्त’ काव्य विरचित किया। किंतु इन सबमें घनानंद ‘नक्षत्रों के बीच चंद्रमा’ रहे हैं। घनानंद की कविता की प्रमुख विशेषताएँ इस बात को और स्पष्ट करेंगी।

घनानन्द का काव्य उनके जीवनानुभवों की सहज अभिव्यक्ति है जिसमें स्वच्छन्तता का भाव अन्तर्निहित है। प्रो. लल्लन राय लिखते हैं - ‘‘अपने युग के सामाजिक विधि-निषेधों के प्रति विद्रोह के साथ ही इन्होंने काव्यगत रीतियों का भी किंचित विरोध अवश्य किया।’’

अपने प्रियतम के ‘मान रखने के कारण ही इन्हें राजदरबार से निकाल दिया गया था। किंतु प्रेम से कहीं समझौता इन्होंने नहीं किया। इनका सुजान के प्रति एक निष्ठ प्रेम आद्यांत बना रहा। यह विद्रोह निजी जीवन में तो शायद उतनी मुखरता से प्रकट नहीं हो सका, किंतु काव्य-रीतियों के पुराने पड़ चुके प्रतिमानों के प्रति विरोध का आग्रह प्रबलता से है।

काव्य-परंपरा में यह मान्यता चली आ रही है कि प्रेम में त्याग और सर्वस्व-समर्पण ही आदर्श है। प्रियतम के लिए मिट जाना ही अंतिम और सर्वोत्तम परिणति है। मिलन में यह आदर्श पतंगे का और विरह में मछली का, वरेण्य है। किंतु इस साँचे में कवि घनानन्द की काव्यानुभूति ‘फिट’ नहीं होती। इस मीन-पतंग दसा’ पर व्यंग्य करते हुए कवि अपनी अनुुभूति के लिए उचित प्रतिमान गढ़ने को आकुल है -

‘‘मरिबै बिसराम गनै वह तो, यह बापुरौ मीत तज्यौ तररौ।
वह रुप-छटा न सहारि सकै, यह तेज तवै चितवै बरसै।
घनआनन्द कौन अनोखी दसा, मति आवरी बावरी ह्वै थरसै।
बिछुरें मिले मीन पतंग दसा कहा मो जिय की गति कौ परसै।।

मछली के प्रेम और पतंगे का स्नेह भला कैसे आदर्श हो सकता है। पतंगा तो प्रियतम से मिलने पर ,मिलते ही प्राण त्याग देता है। वह न तो प्रेम की गहराइयों को समझ पाता है और न संवेदनाओं को। मछली, पानी से अलग होते ही प्राण त्याग देती है। प्रियतम को कलंक लगता है। वह विरहाग्नि को ज्यादा झेल ही नहीं पाती। रहीम भी पहले लिख गए थे ऐसा-

जाल परे जल जात बहि, तजि मीनन को मोह
रहिमन मछरी नीर को तउ न छाड़त छोह।

 जबकि विरह तो प्रेम की जाग्रत गति है। तभी घनानन्द को कहना पड़ा -
‘‘या मन की जु दसा घनआनन्द जीव की जीवनिजान ही जानै।’’ जि़न्दा रह कर उस पीड़ा को महसूस करना घनानन्द को काम्य है।

रीतिमुक्त कविता में कवियों ने अपने वास्तविक प्रेमानुभवों पर ही लिखा है, इसीलिए उनकी कविताएँ हमें स्वाभाविक लगती हैं। लेकिन कुछ रीतिमुक्त जैसे बोधा, प्रेम के द्विपक्षीय रूप के पक्षधर है, वे बेवफा से प्यार करना नहीं चाहते -

‘‘विष खाई मरै कि गिरै गिरिते दगादार ते यारी कभी न करै।’’

परंतु घनानंद तो ‘दग़ादार से यारी’ करने वाले एकमात्र रीतिमुक्त कवि हैं। प्रिय की लाख उपेक्षा और निष्ठुरता के बावजूद वह विचलित नहीं होते, बल्कि  कविता में व्यंग्य का दंश गहरा और यथार्थवादी हो जाता है -
‘‘मोसों तुम्हैं सुनौ जान कृपानिधि नेह निबाहिबो यौं छवि पावै।

ज्यों अपनी रुचि राचि कुबेर, सुरंकहिं लै निज अंक बसावै।’’

कोई धनिक जिस तरह ग़रीबों को स्नेह  करता है, वैसे ही स्नेह तुम्हारा मेरे प्रति है - ऐसा कहकर घनानंद परोक्षतः तत्कालीन वर्ग-विभाजन का स्पष्ट रेखांकन भी कर रहे हैं। घनानंद का प्रेम के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण है। मतिराव, देव, चिन्तामणि आदि की तरह यह केवल ऐंद्रिय नहीं है, हास-विलास, केलि-क्रीड़ा ही नहीं है, बल्कि एक उदात्तता का प्रतीक है। ब्रजनाथ इनके लिए लिखकर यह स्पष्ट करते हैं कि इनके प्रेम का स्वरूप कैसा है -

‘‘चाह के रंग में भीज्यौ हियौ, बिछुरे मिलें प्रीतम सांति न माने।’’

घनानन्द के यहाँ प्रेम ऐसा है कि जितनी दर्शन की अभिलाषा है, उतना ही बिछुड़ने का भय। प्रिय के दर्शन की तीव्र आसक्ति उसके रूप-सौन्दर्य से जुड़ी है। यह सौन्दर्य बोध कोरा ‘कामशास्त्रीय’ नहीं है, वास्तविक अनुभव पर आधारित है। कवि ने प्रेमिका के सौन्दर्य की अनुभव किया है। वह मांसल और ऐन्द्रिय है, कोेई पारलौकिक माया नहीं। इस रूप की प्रशंसा चिर-नवीनता के गुण के आधार पर घनानन्द करते हैं-

‘‘रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागै ज्यौं, ज्यौं निहारियै।’’

क्वि ने कुछ सौन्दर्य चित्र दिए हैं-
‘‘लट लोल कपोल कलोल करै कलकंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग-अंग तरंग उठै द्युति की परिहै मनौ रूप अबै धर च्वै।।

इसी सौन्दर्य के वशीभूत होने के कारण संयोग के क्षणों में इसे खोने का डर बना रहता है -

‘‘अनोखी हिलग दैया, बिछुरै तो मिलै चाहै,
मिलहूँ  में मारै जारै खरक वियोग की।’’

यद्यपि बिहारी जैसा संयोग का सूक्ष्म वर्णन इन्होंने नहीं किया है, किन्तु जिस लक्षणात्मक तरीके से भाषा का प्रयोग किया वह प्रशंसनीय है। संयोग के चित्र होते हुए भी घनानंद की मूल संवेदना विरह-भाव है। चूँकि इसी का ज़्यादा  लम्बा और मर्मान्तक प्रभाव उन्होंने ग्रहण किया है। स्वाभाविकता से, यह विरह-वर्णन के अद्भुत कवि है। तभी तो इनके टिप्पणीकार ने लिखा-

‘‘समुझै कविता घनआनन्द की हिय आँखिन नेह की पीर तकी।’’

आचार्य शुक्ल भी लिखते हैं- ‘‘घनानंद ने न तो बिहारी की तरह विरहताप को बाहरी माप से मापा है, न बाहरी उछलकूल दिखाई है। जो कुछ हलचल, वह भीतर की है- बाहर से यह वियोग प्रशांत और गंभीर है।...उनकी मौनमधि पुकार है।’’

कवि अन्तर्मुखी है। वियोग के समय यह अंतर्मुखी प्रवृति बढ़ जाती है। भीतर का उद्वेग कविता में प्रकट होता है, बल्कि ‘घनीभूत पीड़ा’ ही कविता-रूप में निःसृत होने लगती है। यह विरह इसलिए भी ज़्यादा है क्योंकि प्रेम की विषमता है। प्रियतम की तरफ से कोई आशावादी संकेत भी नहीं है। वस्तुतः ‘प्रीति रीति विषम सु रोम रोम रम्यो है’-यही कहा जा सकता है। प्रेमी तो अपनी अन्तर्मुखी प्रवृति के कारण ‘मौन की पुकार’ लगा रहा है और प्रियतम हृदय की ध्वनि तो दूर प्रत्यक्ष ध्वनि भी सुन नहीं सकती। क्योंकि -

‘‘तेरे बहरावनि रूई है कान बीचि, हाय
बिरही विचारन की मौन में पुकार है।’’
...................................................................
‘‘इत काहू सो मेल  रह्यौ न कछू, उत खेल सी ह्वै सब बात टरी।’’

विरह में जो व्याकुलता होती है, उसका स्वाभाविक चित्रण घनानंद के यहाँ है। बिहारी की नायिका की भाँति नहीं जो ठंडी आहें भरने पर चार-चार कदम आगे-पीछे हो जाती है। एक चित्र देखें -

‘‘अंतर हौं किधौं अंत रहौ दृग फारि फिरौ कि अभागनि भीरौं।
........... पाऊँ कहाँ हरि हाय! तुम्हें, धरनी मैं धँसौं कि अकासहिं चीरौं।।’’

एक अन्य चित्र में इसी व्याकुलता  में प्रकृति से सम्वाद का चित्र है। दुःख में कवि पवन से अपने प्रियतम की चरण रज-मात्र को लाने का आग्रह करता है -

‘‘ऐ रे बीर पौन तेरो सबै ओर गौन
बीरि तोसो और कौन मन ढरकौहिं बानि दै।
...बिरह बिथा कि मूरि आँखिन में राखौं पूरि
धूरि तिन्ह पायन की हा!हा! नेकु आनि दै।’’

विरह-वर्णन में अक्सर वर्णित किया जाता है कि ‘निसि दिन बरसत नैन हमारे।’ किन्तु कविवर घनानन्द  को तो प्रेमी की याद से फुर्सत ही नहीं कि वह दिन और रात कब हुई यह पता लगा सकें। यदि उनके दुःख का वर्णन किया जाए तो रात-दिन का-सा अंतर होगा अपेक्षाकृत आमजन के।
होली की छटा भी प्रियतम बिना अधूरी है क्योंकि जब प्रियतम है ही नहीं तो किसे प्रेम के रंग में रंगा जाए-

‘‘मेरौ मन आली वा विसासी वनमाली बिना
बवरे लौ दौर दौरि परि सब ओर को।’’

प्रेम की विषमता के कारण कवि प्रियतम पर व्यंग्य भी करता है, उलाहने देता है किन्तु प्रेम की उदात्तता का जि़क्र भी करता है-
‘‘मीत सुजान अनीति की पाटि, इ्तै पै न जानिये कौन पढ़ाई
................................................................................................................
अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं
............... तुम कौन धौं पाटि पढ़ै हो लला, मन लेहु पै देहु छंटाक नहीं।’’

अनुभूति पक्ष में श्रंृगार के अलावा इनकी कविता में भक्ति, नीति आदि भी मिलते हैं किंतु प्रमुखता श्रृंगार की है। शिल्प पक्ष की दृष्टि से भी घनानंद की कविता समृद्ध है। कविता को यह ‘उर भौन में मौन के घूँघट दै दुरि बैठी बिराजति बात बनी’- दुल्हन की मान्यता देते हैं - नवोढ़ा, जो सिमटी-सी है। उसका अर्थ धीरे-धीरे खुलता है जैसे नई दुल्हन धीरे-धीरे संकोच त्याग कर अपने सौन्दर्य का रसपान कराती है। आचार्य शुक्ल इनकी भाषाा के बारे में लिखते हैं -
 ‘‘ इनकी सी विशुद्ध सरस और शक्तिशालिनी ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। विशुद्धता के साथ प्रौढ़ता और माधुर्य भी अपूर्व ही है।’’

इस प्रकार हम देखते हैं कि रीति मुक्त स्वच्छन्तावादी कवियों ने अपने काल की कृ़त्रम सीमाओं का अतिक्रमण कर स्वाभाविक काव्यधारा का निर्झर बहाया है। इनमें भी घनानंद की कविता को अगर अपने युग का सर्वोत्तम उपलब्ध निष्कर्ष कहा जाए तो कुछ गलत न होगा।

( सभी संदर्भ नीचे दिये गए हैं। क्रुतिदेव 10 से इसको यूनिकोड में कन्वर्ट किया है । इसमें फुटनोट थे।  यूनिकोड में  उद्धरण के ऊपर लिखे 1, 2, 3 आदि अंक नहीं आ सके हैं । फिर भी विद्वतजन अनुमान लगा कर पढ़ लेंगे , मुझे भरोसा है । आपके सुझाव और संवाद का इंतज़ार रहेगा । धन्यवाद ।  )

संदर्भ सूची -



1-घनानंद कवित्त, सं. -विश्वनाथ प्र. मिश्र, संजयबुक सेंटर, वाराणसी, 1996, पृ. 9
  2-हिन्दी साहित्य का इतिहास, सं. डाॅ नगेन्द्र, वेस्टर्न पब्लिशिंग हाउस, 1980, पृ. 291
  3-घनानंद कवित्त, पृ. 11
  4-हिन्दी साहित्य का इतिहास - आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, अशोक प्रकाशन, नई दिल्ली- 2004
  पृ. 29
  5-वही, पृ. 229
  6-वही, पृ. 113
  7-वही, पृ. 114
  8-राग-विराग, सं- डाॅ रामविलास शर्मा, लोकभारती, 2002, पृ. 75
  9-घनानंद कवित्त, पृ. 9,भूमिका
  10-वही, पृ. 12
  11-हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ. 198
  12-वही, पृ. 222
 13- घनानंद, प्रो. लल्लन राय, साहित्य अकादमी, 2004, पृ. 12
 14- घनानंद कवित्त, पृ. 20, भूमिका
  15-वही, पृ. 21
  16-घनानंद, लल्लन राय, पृ. 36
  17-वही, पृ. 36
  18-घनानंद कवित्त, पृ. 47, भूमिका
  19-वही, पृ. 67
  20-वही, पृ. 9
  21-घनानंद, लल्लन राय, पृ. 54
 22- घनानंद कवित्त, पृ. 4, भूमिका
  23-हिन्दी साहित्य का इतिहास, शुक्ल जी, पृ.203
  24-घनानंद, लल्लन राय, पृ. 63
  25-वही, पृ. 79
  26-वही, पृ. 82
  27-वही, पृ. 46
  28-हिन्दी साहित्य का इतिहास, आचार्य शुक्ल, पृ. 202



सहायक ग्रंथ
1. घनानंद कवित्त, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ; संपादक द्ध, संजय बुक सेंटर, वाराणसी
2. घनानंद, प्रो. लल्लन राय, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली
3. आनंदघन, डाॅ. रामदेव शुक्ल, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
4. हिन्दी साहित्य का इतिहास- सं.- डाॅ. नगेन्द्र, वेस्टर्न पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली
5. हिन्दी साहित्य का इतिहास - आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली
6. रीति काव्य धारा- डाॅ. कृष्णदेव झारी, स्मृति प्रकाशन, दिल्ली
7. राग-विराग, निराला, सं-डाॅ. रामविलास शर्मा, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
8. दीवान-ए-ग़ालिब, मिर्जा ग़ालिब, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली
9. हिन्दी साहित्य और संवदेना का विकास, डाॅ. रामस्वरूप् चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहाबाद

Wednesday, August 29, 2012

हिन्दी-आलोचना और विचारधारा



आलोचना करना एक वैचारिक कर्म है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, जब यह कहा जाये कि अमुक आलोचना, विचारधारा से प्रभावित या प्रेरित है। आलोचना का विवेक होना और विवेकवान आलोचना करना, ये दोनों अलग-अलग बातें हैं और ‘विचारधारा’ यहीं से आलोचना पर अपना प्रभाव डालती है।
‘आलोचना’, जिस रूढ़ अर्थ में प्रचलित है, वह रचना के बाद की प्रक्रिया है। यद्यपि रचना स्वयं जीवन की आलोचना ही है। मैथ्यू आर्नाल्ड ने तो काव्य को  मूलतः "जीवन की आलोचना" ही  माना था।  हर कवि या लेखक अपनी दृष्टि से समाज को, विश्व को परखता है, रचता है और पेश करता है - ‘रचना’ के रूप में। यहाँ कुछ ‘कवि-कर्म’,( कुकर्म ?)  जो हर काल में होते आए हैं, उनसे आशय नहीं है।  रचनाकार जब विषय का चयन करता है, ‘विचारधारा’ वहीं से रचना-आलोचना से जुड़ जाती है। आलोचना से इस तरह कि एक तो स्वयं उसमें ( रचना में ) अभिव्यक्त विषय में क्षण या काल-विशेष की  संवेदनात्मक आलोचना। दूसरे , जब कोई आलोचक उस रचना पर विचार करेगा तो रचना की विचारधारा से तो वह टकराएगा ही, साथ में स्वयं आलोचक की विचारधारा भी रचना की पड़ताल करेगी।

कला के क्षेत्र में विचारधारा का गहरा प्रभाव पड़ता है। विभिन्न दार्शनिकों ने इसका गहन विश्लेषण और  विवेचन किया है। साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला और कभी-कभी तो संगीत कला में भी विचारधारा का प्रभाव देखा जा सकता है। यहाँ हमारा ध्यान मुख्यतः साहित्यिक आलोचना और विचारधारा के सम्बन्धों पर होगा।
साहित्यिक आलोचना का पुराना  इतिहास है, जिसे खंगालना वांछनीय नहीं है। प्राचीन यूनान में अरस्तु, लोंजाइनस, होरेस आदि कुछ नाम-मात्र काफ़ी है तत्कालीन विकसित आलोचना दृष्टि के लिये। आधुनिक आलोचना-शास्त्र के लिये भी हमें यूरोप का कृतज्ञ होना चाहिये। डाॅ.जाॅनसन, पोप, वाल्टेयर, वड्र्सवर्थ, काॅलरिज, इलियट, आदि अनेक नाम जिनकी फेहरिस्त लम्बी है। इन्हीं के लगभग साथ-साथ माक्सवादी साहित्यिक आलोचना जो माक्र्स-एंगेल्स, लेनिन, ग्रामशी, लुकाच, त्रात्स्की आदि से होकर रेमंड विलियम्स, रैल्फ फाॅक्स और टेंरी इगलटन तक आती है। ये सफर लगातार जारी है ।

यह तो हुई यूरोपीय आलोचना-परिवेश की बात। भारतीय और उसमें भी हिन्दी-आलोचना पर विचारधारा के असर की चर्चा इस यूरोपीय परिवेश की पृष्ठभूमि में किया जाना असंगत न होगा, हाँलाकि यहाँ परिवेश आलोचकीय विवेक और विचारधारा वहाँ से भिन्न थे लेकिन यह ज़रूर ध्यान रखना चाहिये कि जब यहाँ  आलोचना-कर्म की शुरूआत हुई तब यह हिन्दी क्षेत्र उसी यूरोप के एक साम्राज्यवादी राज्य का उपनिवेश था। साम्राज्यवाद का शोषण और औपनिवेशिक विडम्बनाएँ दोनों, आलोचनक की विचारधारा पर असर डालेंगी।
हिन्दी आलोचना का जन्म या प्रारंभ भारतेंदु के ‘नाटक’ निबंध से माना जाता है जो 1883ई. में प्रकाशित हुआ था। भारतेंदु ने इसमें एक बात लिखी है -
‘‘प्राचीन लक्षण रखकर आधुनिक नाटकादि की शोभा सम्पादन करने से उल्टा फल होता है और यत्न व्यर्थ हो जाता है।’’ ( भारतेन्दु समग्र , नागरी प्रचारिणी पत्रिका , पृष्ठ - 559)

इस वाक्य में दो विचारधाराओं से वे प्रेरित हैं- पहली तो नवजागरण की मुक्तिकामी-चेतना की विचारधारा जो उस दौरान चल रहे लगभग  तमाम सांस्कृतिक  और  सामाजिक आंदोलनों से आकार ले रही थी। दूसरी नाटक की ,  प्रकारान्तर से पूरे साहित्य की जनोपयोगिता की। भारतेंदु परम्पराआंे की लकीर पीटने की अपेक्षा नवीनता का स्वागत पसंद करते हैं और प्रयास ‘व्यर्थ न हो’ इसकी चिंता भी उन्हें इसीलिये है कि वह साहित्य को केवल ‘स्वान्तः सुखाय’ नहीं मानते।

भारतेंदु के नाटक ही इसका सबसे बड़ा प्रमाण हैं। यह प्रवृत्ति  प्रसाद, महावीर प्रसाद  द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ,आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी,शिवदान सिंह चौहान ,  रामविलास शर्मा , मुक्तिबोध , अज्ञेय, आदि से होती हुई लगातार विकसित हुई है और नाम गिनाना इस पत्र का विषय भी नहीं।

आलोचना, आलोचक की विचारधारा से ही निःसृत होती है। लाल रंग देख कर किसी को क्रांंित के निशान ख़ून की याद आ सकती है तो किसी को प्रेमिका के रक्ताभ होठों की, अपने-अपने विचार। इसी क्रम में विचार, विचारधारा  तब बनते है जब वे प्रभावशाली जन-समूह की वर्ग-चेतना का हिस्सा बन जाते हैं या बना दिये जाते हैं। साहित्यिक आलोचना में विषय चयन से मूल्य-निर्णय तक विचारधारा का हस्तक्षेप होता है। यह चयन भी कहीं न कहीं आपकी वर्ग-दृष्टि से परिचालित होता है।

हिन्दी आलोचना का इतिहास कुछ सौ-सवा-सौ ही वर्षाें का ही है, लेकिन विवाद, जो वाद से निकले, सम्वाद कम ही बन पाये हैं। कारण कि उसका आधार रचनाशीलता से जुड़ाव के बदले विचारधारात्मक छिद्रान्वेषण और प्रतिउत्तरों की प्रबलता रहा है।

हिन्दी में स्वातंत्र्य पूर्व की आलोचना का विचारधारात्मक विश्लेषण कठिन नहीं है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी अनुशासन के हामी थे। बेकन से प्रभावित थे, गोल्डस्मिथ पसंद था और कालिदास, माघ, भवभूति का वे पारायण कर चुके थे। उन्होंने नये साहित्य को मानवोन्मुख बनाने और इसके  लिये सरलता और ‘निजभाषा’ पर ज़ोर दिया। यह साधारण बात नहीं थी। साम्राज्यवादी ताकत के खि़लाफ एक बिगुल के रूप में अपनी भाषा का उत्थान होने लगा। कविता, आलोचना, कहानी आदि क्षेत्रों में द्विवेदी जी की विचारधारा हावी थी।
आचार्य शुक्ल द्विवेदी  युग से ही लिख रहे थे। वे आलोचना में कुछ मानदण्ड बनाकर उतरे - लोकमंगल, साधनावस्था, रस-सिद्धांत का पुनरोद्वार, साहित्येतिहास का वस्तुगत और वैज्ञानिक लेखन आदि। साहित्य को वे ‘जनता की चित्तवृतियों का संचित प्रतिबिम्ब’ मानते थे और यही आधार लेकर उनका आलोचना-कर्म बढ़ा। शुक्ल जी की विचारधारा, विचारों की धाराएँ भी मिल जाने से न तो नाक-भौं सिकोड़ने की ज़रूरत है न उसकी उपेक्षा कर आगे बढ़ने की। शुक्ल जी अपने पूर्वाग्रहों के कारण, विद्यापति को ‘फुटकर श्रेणी’ में रखते हैं,  कबीर का सम्भावनापूर्ण मूल्यांकन भी नहीं कर सके लेकिन उनके पूरे आलोचकीय कर्म में जो विचारधारा प्रमुख थी वह थी लोकमंगल जिस पर उन्होंने सूर, जायसी, तुलसी, घनानंद, भारतेंदु, प्रेमचंद आदि को परखा। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हाशिये की परम्परा के सर्जक और शोधार्थी थे। परंपरा की प्रगतिशीलता ढूंढना उनका प्रमुख दाय है। अब उनके लोकमंगल का 'लोक' कौन है , कौन नहीं है , इस पर हम ज़रूर बहसतलब हो सकते हैं।

आलोचना में विचारधारा का साथ तो सदैव से रहा है लेकिन स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी आलोचना में यह खुलकर सामने आया। दरअसल, आलोचना से पहले रचनाशीलता में ही विचारधारात्मक खाई उत्पन्न हो गई। 1936 के प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के बाद से ही यह सुगबुगाहट शुरू थी और प्रगतिवाद बनाम प्रयोगवाद के नाम स ेचल रही थी। बाद में ‘नयी कविता’ और ‘नयी कहानी’ के नारों के बीच से ये मतभेद और भी बड़े बनकर निकले। अपने-अपने दर्शनों और विचारों का बौद्धिक शास्त्रार्थ दूसरों से किया जाने लगा। आलोचना को यह परम्परा ?  आज भी चल रही है। 1936 के बाद हिन्दी में माक्र्सवादी आलोचना का आरंभ हुआ। प्रकाशचंद गुप्त से शुरू होकर शिवदान सिंह चैहान, डाॅ. रामविलास शर्मा ,डाॅ. नामवर सिंह आदि तक इसका विकास हुआ और हो रहा है। दूसरी ओर की खेमेेबंदी विचारधारात्मक ही थी, जो रूपवादियों के दल की थी, जिनमें अज्ञेय, रामस्वरूप चतुर्वेदी, धर्मवीर भारती आदि थे। कुछ आलोचक स्वतंत्र-चिंतक या कहें कि शास्त्रीय थे जैसे- डाॅ. नगेंद्र आदि।

मार्क्सवादी  आलोचना रचना की आधार और अधिरचना में जाती है। उसके काल-बोध को पकड़ती है। इतिहास में उसका स्थान ही तय नहीं करती वरन् रचना से इतिहास को भी तय करती है। जनोन्मुख साहित्य की पक्षधरता इसमें होती है क्योंकि यह ‘कला जीवन के लिए’ सूत्र पर यक़ीन रखती है। माक्र्सवादी आलोचना रचना में जुड़े उन स्थलों और प्रसंगों की विस्तृत व्याख्या का प्रयत्न करती है जो जन-क्रांति से जुड़े हैं या सामाजिक क्रांति की किसी बात से। स्वभावतः  मार्क्सवादी  विचारधारा शासक-वर्ग  की  विरोधी होती है अतः  मार्क्सवादी आलोचना भी रचना के ज़रिये सत्ता की दमनकारी नीतियों का विरोध करती है।

आलोचना- संरचनावादी, विखण्डनवादी, रूपवादी या उत्तर आधुनिकतावादी - अंतर केवल या कमोवेश नाम का ही है। संदर्भ लगभग  एक ही है कि रचना का कोई संदर्भ-प्रसंग नहीं। पाठ ही सब कुछ है। शायद इतने विश्वास से तो शंकराचार्य ने ब्रह्म के बारे में भी न कहा हो! तुर्रा  ये कि- "इतिहास का अंत हो गया है।" ( फ्रांसिस फुकुयामा, जापानी मूल के अमेरिकी विश्लेषक ) गोया ‘इतिहास’ हिरोशिमा के किसी मुहल्ले में उस वक्त रहता था जब उस पर परमाणु बम गिरा दिया गया। असल में ये सब ढकोसले नये पूँजीवाद के सलोने जुमले हैं। साहित्य की संघर्षशील चेतना को ढाँप् कर उसे रीतिवादी चैखटे में कैद कर देने की साजि़श है - लेकिन है, ये भी एक विचारधारा ही।

प्रसंगवश ‘सरकारी’ नामक विचारधारा का उल्लेख भी करना होगा। यह नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों  द्वारा ‘तैयार’ की जाती है और एक साथ उदार एवं क्रांतिकारी, जनोन्मुख और अभिजनोन्मुख होती है। पाठ्यक्रम में लगी आलोचना की किताबें और आलोचनात्मक निबंध इसके उदाहरण है।

इस तरह हम देखते हैं कि आलोचना और विचारधारा अपने-अपने पक्ष को रखती हुई साथ-साथ चलती है। विचारधारा, आलोचना को प्रभावित करती है और कभी कभी पूरी तरह निगल जाती है। तब आलोचना का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है, क्योंकि आलोचक के पास विचारधारा का विवेक होना अच्छा है, लेकिन  उससे ज़्यादा जरूरी है कि उसके पास रचना के मर्म का बोध हो, रचनाकार व कृति के इतिहास का बोध हो ,तभी आलोचना सफल होगी।

 नोट- ( मूलतः यह पर्चा जे एन यू के एम ए के अंतिम सेमेस्टर में प्रो॰ मैनेजर पाण्डेय के लिए लिखा गया अवधि पत्र था। यहाँ उसका थोड़ा-सा परिवर्धित रूप प्रस्तुत है। )

नीलाम्बुज सिंह
प्रवक्ता (हिन्दी),
केन्द्रीय विद्यालय, बगाफा
सांतिर बजार, दक्षिण त्रिपुरा-799144
(त्रिपुरा)

Saturday, August 18, 2012

केरल के वायनाड में बच्‍चों ने प्रेमचंद को याद किया


केरल के वायनाड में बच्‍चों ने प्रेमचंद को याद किया

1 AUGUST 2011
♦ नीलांबुज
केरल एक सुंदर जगह है। यहां के वायनाड जिले में केंद्रीय विद्यालय, कल्पेट्टा के राजभाषा विभाग के बैनर तले एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। संगोष्ठी प्रेमचंद जयंती की पूर्व-संध्या पर हुई। विषय था, प्रेमचंद और बाल मनोविज्ञान। हर्ष की बात है कि केरल के आदिवासी बहुल इस इलाके में प्रेमचंद को जानने, समझने और चाहने वाले खूब लोग हैं। यद्यपि यह एक सरकारी कार्यक्रम था, इसका तेवर जनोन्मुख था। राजभाषा की जटिलताओं से दूर बच्चों के प्यारे लेखक प्रेमचंद की सरल भाषा वाली रचनाएं थीं। बच्चों के बनाये गये पोस्टर थे, उनकी सहभागिता थी। वक्ताओं में डॉ सिंधु (एर्नाकुलम विश्वविद्यालय, एर्नाकुलम) और डॉ मिनी प्रिया (सेंट थोमस कॉलेज, त्रिशूर) ने अपने विचार व्यक्त किये।
डॉ सिंधु ने प्रेमचंद के जीवन से जुडी बारीक बातों को बच्चों के सामने सरल ढंग से पेश किया। उनके कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों ने पूस की रात कहानी का मलयालम अनुवाद किया था, जिसे हमारे विद्यालय की दसवीं कक्षा की एक छात्रा अंजू सी ने प्रस्तुत किया। इस RECREATION में केरल की संस्कृति के अनुरूप ही बदलाव कर दिये गये थे। इस प्रयास को बच्चों ने खूब पसंद किया। इसके अलावा सिंधु जी ने प्रेमचंद के जीवन से जुडी यादगार तस्वीरों को कंप्यूटर के जरिये प्रस्तुत किया। उन्होंने बच्चों से प्रेमचंद की ही तरह साधारण किंतु महत्वपूर्ण मुद्दों पर लिखने की अपील भी की।
डॉ मिनी प्रिया जी ने अपने सारगर्भित भाषण में प्रेमचंद के साहित्य को आजादी के बाद के परिवेश में समझने पर बल दिया। उन्होंने हरिशंकर परसाई की एक रचना से उद्धृत एक प्रसंग का उल्लेख किया। एक बच्चे द्वारा स्वतंत्रता के बुनियादी अर्थ पर ही सवाल उठाया जाता है, जब उसे घर में ही परिवार द्वारा अनेक गुलामियां सहन करनी पड़ती हैं। प्रेमचंद ऐसे ही बच्चों के कलाकार थे। प्रेमचंद बच्चों ही नहीं, बचपन को बचाने पर बल देते हैं, ऐसी बातें मिनी प्रिया जी के भाषण से निकल कर सामने आयीं। उन्होंने विद्यालय के बच्चों के योगदान की भी सराहना की और कहा कि ऐसे ही बच्चे प्रेमचंद की संवेदना का विषय थे।
कार्यक्रम में जिन बच्चों ने सहभागिता की उनमें से कुछ हैं… श्रीजिता, श्रेयस, हरिता, अंजलि जो जेम्स, अक्षय किशन, उन्नी कृष्णन, ब्लेसन, जोन, श्रद्धेय, आर्या, श्रेया, अक्षय, रिशिका, एबिन जकारिया, अश्वती और जिना थोमस।
कार्यक्रम में श्रद्धा, सुष्मिता मेरी रोबिन्‍सन, श्रीमती मिनी, विजेंद्र कुमार मीना और अश्वती ने सक्रिय योगदान दिया। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए प्रधानाचार्या केजी सुजया ने हिंदी के इस कार्यक्रम के लिए अतिथियों को बधाई दी और हिंदी के प्रोत्साहन के लिए अपनी प्रतिबद्धता जतायी।
कार्यक्रम का संचालन नीलांबुज ने किया।

अल्ट्रा मेट्रो सिटी बंगलौर रिपोर्टिंग सर!


अल्ट्रा मेट्रो सिटी बंगलौर रिपोर्टिंग सर!

2 NOVEMBER 2011 5 COMMENTS
♦ नीलांबुज

बैंगलोर का एक चेहरा यह भी है…
जब हम स्काउट कैंप, बंगलौर गये थे ट्रेनिंग के लिए, तो दस दिन की ट्रेनिंग में एक दिन दशहरे के नाम पर बाहर छोड़ा गया, शहर घूमने के लिए। सबसे कहा गया कि यात्रा का विवरण लिख कर लाना है। मेरे अंदर खलबली हुई और जो बाहर आया वो ये था…
ल हम लोग दशहरे वाले दिन बंगलौर घूमने निकले। मैं दोस्तों से थोड़ा पीछे रह गया तस्वीरें लेने के चक्कर में। तभी मुझे बंगलौर आता दिखाई दिया। गंदे-स्वच्छ कपड़ों की मिली-जुली पोशाक में। उदास, हताश, परेशान। मैंने पूछ – “क्या हुआ बंधु, राजधानी होकर भी खस्ता हाल? केंद्रीय विद्यालय में पढ़ाते हो क्या?”
वो बोला, “नहीं, अब इतना भी बुरा हाल नहीं है। लेकिन अच्छा भी नहीं है। लोग समझते हैं, मैं राजधानी हूं। ऐश-ओ-आराम से रह रहा होऊंगा। लेकिन मुझ पर जो बीतती है, मैं ही जानता हूं। हर रोज मेरे सीने पर सैकड़ों नयी गाड़ियां दौड़ा दी जाती हैं। माल, सड़क, कालोनी बनाने के बहाने मेरी हरियाली को नष्ट किया जा रहा है। ये जो मेरे साफ कपड़े हैं, वो तो मेरा वह हिस्सा है, जिसे मीडिया हमेशा दिखाता है। मेरा असली वेश तो मेरे फटे-पुराने कपड़े यानी वो गंदी बस्तियां हैं, जिनको कभी प्रगति की हवा भी नहीं लगी। रोज बेदखल हो रहे हैं ऐसे लोग मेनस्ट्रीम से। मेरे कुछ भाई-बहनों का हाल तो मुझसे भी बुरा है। कल दिल्ली बहन ने फोन किया था। वो भी कोमनवेल्थ के बाद सुंदरता की उम्मीद में थी, लेकिन क्या हुआ? आजकल मुझे भी मेट्रो नाम का झुनझुना देने की तैयारी है। हर जगह जो गड्ढे देख रहे हो, उसी का परिणाम है। चेन्नई-मुंबई बहन और कोलकाता भाई भी इन्‍हीं दिक्कतों से परेशान है। अहमदाबाद सर ने भी कुछ ऐसी ही बात ईमेल से भेजी थी।”
मैं हतप्रभ था! मैंने ऐसे ही कहा, “चलो बंगलौर भाई, चाय पीते हैं…”
बंगलौर ने कहा, “नहीं। चाय पीने की मुझे आदत नहीं है। पेट्रोल और डीजल का धुआं ही मेरा कलेवा है। कूड़े का लंच कर लेता हूं और डिनर भी वही।”
मुझे देर हो रही थी। सोचा कहां फस गया। इसकी तस्वीर उतार लूं क्या? शायद किसी एक्जिबिशन में पुरस्कार ही मिल जाए लेकिन ऐन उसी वक्‍त पर मेरे मोबाइल की बैटरी ने साथ छोड़ दिया।
बंगलौर ने आगे कहा, “नेताओं, मंत्रियों, अफसरों और टूरिस्टों को दिखाने के लिए मुझे सज-संवर कर रहना पड़ता है, वरना हालत बड़ी खराब है भाई।”
तभी एक लाल बत्ती वाली गाड़ी आती दिखी। बंगलौर ने अपनी कमीज का साफ-सुथरा वाला हिस्सा गाड़ी की तरफ कर दिया। मुझे लगा जैसे कह रहा हो, “अल्ट्रा मेट्रो सिटी बंगलौर रिपोर्टिंग सर!”

मोहल्ला लाइव पर यहाँ पढ़ें। 
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हिंदी सप्ताह की एक छटा त्रिशूर में भी चमकी




19 SEPTEMBER 2011 
♦ नीलांबुज

ब सारा देश प्रायोजित रूप से हिंदी पखवाड़ा मना रहा है, उस समय हम ‘विकल्प’ की तलाश में हैं। जी हां, एक ऐसा मंच है ‘विकल्प’ जो गुटबंदी की गंदगी से परे एक पुरकशिश कोशिश है कुछ हिंदी प्रेमियों की।
फेसबुक पर मित्र बनी डॉ शांति नायर ने सबसे पहले इसके बारे में बताया। एर्नाकुलम जिले में कालड़ी के संस्कृत विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के कुछ उत्साही और समर्पित साथियों ने इस मुहिम को शुरू किया है।
एक खास बात जो मुझे अच्छी लगी – गोपालस्वामी जी ने बताया कि हम लोग हर दो महीने पर किसी पुस्तक पर चर्चा करते हैं। पुस्तक पहले ही तय कर दी जाती है। सारे सदस्य उस किताब को खरीद कर पढ़ते हैं। फिर उस पर चर्चा होती है। अब तक हर विधा की महत्वपूर्ण किताबों पर चर्चा हो चुकी है। इस बार जो पुस्तक चर्चा के लिए चुनी गयी है, वह है – सूरजपाल चौहान जी की ‘तिरस्कृत’।
केरल के एक छोटे से शहर त्रिशूर में यह ‘विकल्प’ का छठवां सम्मलेन था। वरिष्ठ व्यंग्यकार गोविंद शेनॉय (85 वर्ष) मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से एक प्रेरणा रहे। उनका उत्साही व्यक्तित्व ‘काल से होड़’ लेता दिखा।
डॉ गोपालस्वामी जितने सरल और कर्मठ हैं, उतने ही उदार भी। संस्था के सचिव के रूप में उनसे मिलने से पहले त्रिशूर रेलवे स्टेशन पर ही हम उनसे एक जिम्मेदार आयोजक के रूप में मिले। रात 10:30 पर भी वह हमारा इंतजार करते हुए मिले।
सुबह उन्होंने आयोजन स्थल पर सबसे परिचय करवाया। काफी बड़ी संख्या में बीए, एमए, एमफिल और पीएचडी के विद्यार्थी वहां थे। हिंदी के अध्यापक तो थे ही। कुछ अन्य हिंदी प्रेमी भी थे। यहां तक की बच्‍चे भी थे।
गोष्‍ठी का विषय था – “कविता का वर्तमान”।
डॉ पी रवि ने इसी नाम से एक किताब का संपादन भी किया है, जिसका लोकार्पण गोविंद शेनॉय जी ने किया। ‘जन विकल्प’ नाम की पत्रिका का प्रवेशांक भी जारी किया गया।
बाकी तो वो सब हुआ यहां भी, जो हर जगह होता ही है। उसका उल्लेख नहीं करूंगा।
काफी सारी यादें लेकर हम लोग लौटे हैं वायनाड। अच्छा लग रहा है।

Thursday, August 2, 2012

अंतिम पंक्ति का शीर्षक




तर्जनी , मध्यमा, अनामिका
और यहाँ तक कि कनिष्ठा भी
पा जाती हैं मुझ से ज्यादा इज्ज़त
लेकिन द्रोणाचार्यों  के बीच तो
मैं ही लोकप्रिय हूँ.
मैं ओ के  हूँ
मैं चीयर्स हूँ
मैं शेम हूँ
मैं लिफ्ट हूँ , हूट हूँ
मैं लाइक और डिसलाइक का फ्रेम हूँ
और तो और मैं कोका  कोला का
प्रसिद्ध ब्रांड हूँ
मैं अपने आप में अनूठा हूँ
मैं अंगूठा हूँ

सरोज-स्मृति : निराला - व्याख्या जैसा कुछ


देखा विवाह आमूल नवल, तुझ पर शुभ पडा़ कलश का जल। देखती मुझे तू हँसी मन्द, होंठो में बिजली फँसी स्पन्द उर में भर झूली छवि सुन्दर, प्रिय की अशब्द श्रृंगार-मुखर तू खुली एक उच्छवास संग, विश्वास-स्तब्ध बँध अंग-अंग, नत नयनों से आलोक उतर काँपा अधरों पर थर-थर-थर। देखा मैनें वह मूर्ति-धीति मेरे वसन्त की प्रथम गीति -- श्रृंगार, रहा जो निराकार, रस कविता में उच्छ्वसित-धार गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग -- भरता प्राणों में राग-रंग, रति-रूप प्राप्त कर रहा वही, आकाश बदल कर बना मही। हो गया ब्याह आत्मीय स्वजन कोई थे नहीं, न आमन्त्रण था भेजा गया, विवाह-राग भर रहा न घर निशि-दिवस जाग; प्रिय मौन एक संगीत भरा नव जीवन के स्वर पर उतरा।



इस काव्यांश  में निराला ने अपनी पुत्री सरोज के विवाह का वर्णन किया है.
‘आमूल’ का अर्थ ‘रेडिकल’ के ज्यादा नज़दीक है. नवल भी उसी नवाचार की प्रतिष्ठा करता है.  निराला ने अपनी पुत्री के विवाह में किसी वेदपाठी ब्राह्मण को नहीं बुलाया. ना तो जन्म-कुंडली मिलवाई. निराला वैसे भी बदनाम थे अपने समाज में. “ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत”.  कोई पंडित राज़ी नहीं था सरोज की शादी के लिए. तो निराला ने निर्णय लिया कि वह स्वयं ये ज़िम्मेदारी उठाएंगे. वे लिखते हैं - “ लग्न के पढूंगा स्वयं मन्त्र , यदि पंडित जी होंगे स्वतंत्र”.
सबसे बड़ी बात , शायद भारतीय भाषाओं के किसी भी साहित्य में किसी पिता ने अपनी पुत्री के सौंदर्य की तुलना अपनी पत्नी के सौंदर्य से नहीं की थी. ना कालिदास ने , ना व्यास ने , ना वाल्मीकि ने ,  ना भवभूति ने , ना कम्ब ने , ना वाणभट्ट आदि ने . यह काम शायद निराला को ही करना था.
सरोज की सुहागन वाली छवि निराला को बार बार मनोहर देवी की याद दिलाती है. जब कलश के जल से वधू को स्नान कराया गया , तो निराला को अपनी प्रिया यानी मनोहरा देवी की सबसे ज्यादा याद आई. क्यों ? क्योंकि यह काम परंपरागत रूप से लड़की की माँ ही करती है.  जब सरोज ने इस अवसर पर अपने पिता की तरफ हँसते हुए देखा तो अकस्मात ही निराला के ह्रदय में अपनी पत्नी की छवि उभर आई.
‘प्रिय की अशब्द श्रृंगार मुखर...” का अर्थ है कि मानो मनोहरा देवी का सौंदर्य ही सरोज के सहज उच्छ्वास के साथ साकार हो उठा हो . सरोज के अंग अंग से मनोहरा की कान्ति फूट रही है , यह इतना सहज है कि दोनों एकाकार हो उठे हैं. सरोज के अंग अंग से जो कान्ति निकल रही है , वह लगातार कवि को अपनी प्रियतमा की याद दिला रही है.
कवि एक फ्लैशबैक में चला जाता है. उसे अपनी प्रियतमा के संग बिताए गए क्षण याद आने लगते हैं. निराला को मनोहरा देवी का सौंदर्य और उनका मधुर गला याद आने लगता है. वो गीत जो उन्होंने अपनी पत्नी से सीखा था – “श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं”जिसने उनके प्राणों में नया उत्साह भर दिया था . ( ‘निराला की साहित्य साधना -१ : राम विलास शर्मा )

कवि कहता है कि सरोज का रूप देखकर ऐसा लगता है कि मानो कामदेव ने वही रूप आज मेरी बेटी को दे दिया है. “आकाश बदल कर बना मही”में ये ध्वनि है कि अगर मनोहरा का सौंदर्य आकाशधर्मा था , तो सरोज का सौंदर्य वसुधा-धर्मी. अर्थात मनोहरा में कल्पना की प्रधानता थे और सरोज में यथार्थ की.

बाकी पंक्तियाँ साधारण ही हैं. उसमें खास ये हैं कि निराला ने जो विवाह सरोज का किया , उसमें किसी रिश्तेदार आदि को न बुलाकर केवल आत्मीय स्वजनों को बुलाया. इसका विवरण भी ‘निराला की साहित्य साधना -१’ में दिया गया है.
अंतिम पंक्तियों में निराला लिखते हैं कि जिस घर में कुछ दिनों से दिन रात ‘विवाह राग’ बज रहा था , अचानक वह सूना हो गया . सूना भी वैसा नहीं, एक मौन संगीत जैसे कहीं बज रहा हो, और एक नए जीवन का स्वागत कर रहा हो .  आचार्य शुक्ल ने तो लिखा ही है कि – “कविता को संगीत के और संगीत को कविता के निकट लाने का जैसा प्रयास निराला ने किया है , वैसा किसी आधुनिक  हिंदी के कवि ने नहीं किया.” ( हिंदी साहित्य का इतिहास)


सांवली लड़कियां

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