Sunday, May 23, 2010





प्रेमचंद को पढ़ते हुए 

लिखी लोरियां, उन्हें छपाया , खूब कमाया/हमने माँ की ममता का भी दाम लगाया.

खूब पढ़ी थी हमने भी पुस्तक में कविता/बाज़ारों से गुज़रे तो कुछ काम ना आया

अब तो 'पेप्सी', 'बर्गर', 'कोला' भले लगे हैं/माँ के हाथों की रोटी में स्वाद ना आया

आज 'अमीना' के हाथों को जलते देखा/ फिर भी मेरे मन में 'हामिद' क्यूँ ना आया



तुम बच्चों सा हँस देते हो, रो देते हो/ 'नील' अभी दुनियादारी का ढंग ना आया!

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