हमारे सफ़र का तो कोई हमसफ़र भी नहीं
हमारे रास्तों का कोई रहगुज़र भी नहीं /
हमें तो फ़िक्र है जनाब कल की रोटी की
वो रात हादसे में क्या हुआ खबर भी नहीं/
भला बाजारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
हमारे गाँव के नज़दीक तो शहर भी नहीं/
न कभी 'धर्म' रहे और न कभी 'जात' रहे
वजह यही कि 'दुआओं' में वो असर भी नहीं/
अब हमें धोबी का कुत्ता कहें, गरीब कहें
घाट तो है नहीं अपना तो कोई घर भी नहीं. --- नीलाम्बुज (ये कविता श्री हरिओम जी के ग़ज़ल संग्रह 'धूप का परचम' पढ़ते हुए लिखी थी जब मैं बी ए सेकेण्ड इयर में था.)
एक और बेहतरीन ग़ज़ल....हर लाइन कई कहानी कहती हैं..
ReplyDeleteभला बाजारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
हमारे गाँव के नज़दीक तो शहर भी नहीं/
भला बाजारों के दस्तूर कैसे सीखें हम
ReplyDeleteहमारे गाँव के नज़दीक तो शहर भी नहीं/
-गजब!
this shows your literary skill and interest.
ReplyDeletepoori ghazal achhi ban padi hai ... :)
ReplyDelete-गजब!
ReplyDeletephoto ke kaaran gajal aur prabhavi lag rahi hi. bahut acchi lagi.
ReplyDeletebahut accha laga is ghazal ko padhna ....sachmuch is safar ka koi hamsafar nhi hota ....
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