Thursday, October 25, 2012

बलिया में कब लगेगा पुस्तक मेला

बलिया एक पुराना शहर है। यहाँ का साहित्यिक सांस्कृतिक अवदान किसी से छिपा नहीं है। यहीं पर 1884 में भारतेन्दु ने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया था। उसके बाद से गंगा , घाघरा और गंडक में काफी पानी बह चुका है। ददरी मेले में हर साल भारतेन्दु मंच पर कवि सम्मेलन और मुशायरे होते हैं। इसमें भाड़े के भाड़ काफी आते रहते हैं। किन्तु दुखद है कि गौरवशाली परंपरा वाले इस मेले में आज तक पुस्तक मेले का आयोजन नहीं हुआ। आज भी पीली कवर वाली 'रहस्यपूर्ण' किताबें ही इस मेले को मुह चिढ़ाती हुई बिकती रहती हैं।

जिस बलिया ने भगवतशरण उपाध्याय, हजारी प्रसाद द्विवेदी,  अमरकान्त और केदारनाथ सिंह जैसे प्रसिद्ध साहित्यकारों/बुद्धिजीवियों को पैदा किया , वहाँ आज पढ़ने की परम्परा खत्म हो रही है। फॉर्म बेचने वालों की बढ़ती दुकाने , यहाँ के युवा वर्ग  में रोजगार को लेकर बढ़ती बेचैनी का प्रतीक हैं। इस बीच बुक स्टाल वाले भी किसी किस्म का रिस्क नहीं लेते और फॉर्म के अलावा सिर्फ सरस सलिल या गृहशोभा मार्का किताबें ही रखते हैं। बलिया रेलवे स्टेशन पर भी दो दुकानें हैं किताबों की। इसमें भी व्हीलर पर 'लोकप्रिय' साहित्य तो खूब मिलता है किन्तु उसी के बगल में 'सर्वोदय' बुक स्टाल अपनी किस्मत पर बिसूरता रहता है।

ये सब बातें सिर्फ इस पीड़ा में लिख गया कि मैं काफी दिनों बाद बलिया आया था। केरल और त्रिपुरा में रहते हुए हिन्दी किताबों की भूख बहुत बढ़ गई थी। तो यहाँ आते ही टूट पड़ा। जहां मिला , जो मिला , खरीद रहा हूँ। लेकिन जब सुनता हूँ दिल्ली , लखनऊ , पुणे , पटना , इलाहाबाद और कोलकाता के पुस्तक मेलों के बारे में तो सोचता हूँ कि क्या किताबें पढ़ने का हक या अवसर केवल बड़े शहरों को ही दिया जाएगा ? 

Friday, October 5, 2012

बाल साहित्य उपेक्षित क्यों ?


ये लेख इस्पातिका में एक पूर्वपीठिका के रूप में प्रकाशित हुआ है। देखिये पीठ कैसी होती है। इंतज़ार कीजिये। 

Sunday, September 30, 2012

कवि को 'देस निकाला'?

यहाँ पर  आप मेरी एक पुरानी पोस्ट पढ़ सकते हैं । मोहल्ला लाइव पर ये मेरी पहली पोस्ट थी। काफी आक्रोश में लिखी थी। सिर्फ याद करने के लिए लगा रहा हूँ । 

ग़ज़ल और बाल साहित्य

ये दो गजलें और नीचे का एक लेख प्रभात खबर में आए थे। आज लगा ही तो दिया यहाँ पर । 


प्रगतिशील कविता और नागार्जुन







नज़ीर की काव्यभाषा







इसपातिका में प्रकाशित एक शोध लेख । सुधीजनों के लिए । मेरे एम फिल शोध कार्य की एक झलक। 

Friday, September 14, 2012

सामासिक संस्कृति


सभ्यता दाल-भात है !
स्वाद है संस्कृति?
केवल दाल-भात पेट तो भर देता है
लेकिन कभी-कभी एक अदद हरी मिर्च
(नमक के साथ)
स्वाद बढ़ा देती है
मिर्च कड़वी भी हो सकती है !
( फिर मीठी मिर्ची कभी सुनी भी तो नहीं !)
मिर्च कई तरह से खा सकते हैं –
हो सकता है बने चटनी
लोढ़े-सिलबट्टे पर ।
बन जाएगा आचार , यदि
भर दें उसमें थोड़ा सा मसाला और धन ।
 
यह बात भूख से निकली थी
और भूख संस्कृति नहीं होती
संस्कृति है स्वाद –
स्वाद : मेहनत का , पसीने का , खून का ।
इन्ही को समेट लो कवि !
सामासिक संस्कृति है यही , यही ।
 

सांवली लड़कियां

क्या तुमने देखा है  उषाकाल के आकाश को? क्या खेतो में पानी पटाने पर मिट्टी का रंग देखा है? शतरंज की मुहरें भी जहां पा जाती हैं बराबरी का हक़  ...